________________
चतुर्विंशति स्तोत्र
इन्न प्रकार दर्शोपयोग सुदृत निमज होता है ने ही ज्ञानोपयोग रूप श्रुतज्ञान को बारम्बार संयम सुधारस से नित्य अभिसिंचित करते हुए दोनों उपयोगों को एक साथ समन्वित करते हुए उद्याम पुरुषार्थ निष्ठ होते हैं । वे ही किसी भी एक ही प्रहार से मोहान्धकार को दल-मल कर (नष्टकर)निज तत्त्व को स्पर्श करते हुए क्षायोपशमिक ज्ञानोपयोग को क्षायिक, विशाल केवल ज्ञान को प्रकट करते हैं | उसकी विश्व प्रकाशी व्यापक महिमा से आक्रान्त हो निरन्तर उसी में स्थित हो जाते है । यह प्रहारक ध्यान शस्त्र से उद्घाटित पूर्ण हुआ केवलज्ञान प्रकाश अनन्तकाल तक रहता है । उसी में समाहित आत्मतत्व अजर-अमर हो जता है ||१८||
जब तक आत्मा के शुद्ध प्रकाश का रसास्वाद उपलब्ध नहीं होता, तब तक ही स्पष्ट सर्वाङ्ग को प्रमाद वश अपने रस में बलात् उद्दाम श्रम कर भी डुबाये रहता है । अर्थात् आत्मस्वरूप विमुख ही प्रमादी होते हैं । परन्तु जो विवेकी ज्ञानी जन प्रमाद की मादकता के रहते भी मदाक्त नहीं होते, उसमें निमग्न नहीं होते वे ही प्रमाद के उछलने पर उसके प्रभाव से विकल रहते हैं । ये ही समय पाकर पापों से रहित होते हैं । अर्थात् प्रमाद जन्म कारणों के रहते हुए भी जो चियेकी तीक्ष्ण संयम की गाढ श्रद्धा से ही सम्पन्न रहते हैं, वे ही पाप पुञ्ज का नाश करते हैं | समस्त पापाग्नवों का मूल हेतू प्रमाद है । भव्यात्माओं को संयम धारण निष्प्रमाद बनना चाहिए 1॥१९॥
यदि वाह्यवस्तु सम्यक् रूप से वाह्य भी प्रकाशित होती है तो भी वह अनन्तरङ्ग से प्रभारूप ही है क्योंकि विपरीत विषय को विपर्य रूप से व्यक्त कर रही है । वह भी आत्मा का आभास ज्ञान का विषय होने पर प्रत्यक्ष मल का क्षीण करने वाला ही होता है । क्योंकि अल्पज्ञता के कारण बाह्यरूप
२१७