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चतुर्विशति स्तोत्र
से विपरीत होने पर सम्यक निमित से ज्ञान के वृद्धिंगत होने पर क्या वह परिमार्जित नहीं होती । अर्थात् पशेल ज्ञान हो जो पदार्थ स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं हुए परोक्ष बुद्धि से ही विपरीत हैं, वे ही बुद्धि प्रत्यक्ष होने पर प्रत्यक्ष हो जाते हैं । अल्पज्ञान भी यदि सम्यक है तो वह भी पूर्ण ज्ञान का हेतू ही है सम्यक्त्व पूर्वक होने के कारण अन्तः आत्म स्वभाव रूप होकर अन्तरंग ज्ञानोद्योत सत्य रूप होने से विपर्य नहीं है । अपितु शक्तिहीन होने से याथा तथ्य स्वरूप समझने में बालवत् है । तथाऽपि प्रबल साधन भूत गुरु आदि का सानिध्य होने पर वह शक्ति हीन सामर्थ्यपुष्ट क्यों नहीं होगा ? होगा ही । हे भगवन्! आपके पावन चरणाब्जों का सानिध्य पाकर दुर्गति भी समती हो ही जाता है |॥२०॥
कषायों का यथायोग्य शमित करने में उद्यमशील होकर भी संयम के साथ ज्वलित संज्वलन क्रोधादि कषायें स्थूल रूप से व्यक्ताव्यक्त प्रमादोत्पन्न कर कुछ-कुछ रागादि से आत्मा को मलिन करता है । आक्रमण करता है । तथाऽपि सम्यग्ज्ञान रूपी अग्नि के संचल न रूप क्रोध से संघुक्षत (धौंकी) होने पर भी उस रागादिमल को अपना हव्य-ईधन बनाकर भस्म कर देती है । जिस प्रकार जड़ रूप अग्नि में घी की आहुति दी जाय तो उग्ररूप से प्रज्वलित हुयी ज्वाला स्वयं के साथ ईंधन को भस्म कर देती है । अर्थात् ज्ञानानल भी कषायों के क्षीण होते-होते साथ ही दुष्टाष्ट कर्मों के विशेष आत्मगुण घाति घातिया कर्मों को भस्म कर निर्मल प्रत्यक्ष अनन्तज्ञान स्वरूप कैवल्य को प्रकट करा देती है ||२१॥
विशेष महिमा युक्त ज्ञान की प्राप्ति से अखण्ड बलशाली चारित्र को प्राप्त करता है । उस सम्यक् चारित्र के द्वारा पूर्व संचित-सत्तारूप कर्मभार रूप मल को (मनमें स्थित) तिरस्कृत कर देता है । अर्थात् उस मन में समाहित
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