Book Title: Chaturvinshati Stotra
Author(s): Mahavirkirti
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 319
________________ चतुर्विंशतिस्तोत्र कर्ममल की अनुभाग शक्ति को क्षीण कर निष्फल सत्ता से बहिर्भूत कर देता है। तथा उससे आच्छादित शुद्ध आत्म स्वभाव का स्पर्श करने वाले अत्यन्त अपूर्व यानि अदभुत, उत्तरोत्तर शोभायमान होने से वैसरद्य को प्रकट कर देता है । उसी जाग्रत उद्योतित ज्ञान ज्योति से उत्तरोत्तर स्फुरायमान होता हुआ अमित तेज (स्फुरायमान) चतुर्दिक अपने अमित तेज को स्फुरायमान कर लेता है । जो सतत अपने अलौकिक प्रभाव से प्रकाशमान रहता है ||२२|| जो घोर तपस्वी नर पुंगव अशेष घातिया कर्मों को भस्मसात कर उसकी रज को (राख को ) भस्मी को पूर्णतः, अपनी अत्यन्त वृद्धि के पूर से अद्भुत. आश्चर्योत्पादक विचित्र संयमरस से परिपूर्ण निर्झरनी के द्वारा प्रक्षालित कर देते हैं । वे अन्तः करण में अत्यन्त निर्मल शान्त महिमा में प्रविष्ट होते है । तथा असीम तेजस्विनी ज्योतिर्मयी कला जो परिग्रह की मूर्च्छा से मूर्च्छित आच्छादित हो रही थी, उस परमात्ममहिमा स्वरूप निजात्म कला जो निस्तेज हो रही थी उसे जाग्रत करते हुए उसी में निमग्न होते हैं । अर्थात् अनन्त कल्पकाल पर्यन्त उसी का अनुभव करते हैं । अभिप्राय यह है कि स्वयं आत्मा ही अपने आत्मीय स्वभाव को प्रकट करने में सक्षम होती है । तदनुरूप सम्यक् प्रयास करने पर ||२३|| यह संयमजन्य स्वसंवेदन उत्तरोत्तर उज्जवल -निर्मल होता हुआ स्वयं अपने ही आनन्दघनसुधारस प्रवाह में उछलता है । अपने निर्द्वन्द वेग में स्पूर्ण पदार्थों के समूह रस का पान पान कर उस भार से मत्त के समान स्वच्छन्द हो स्व स्वभाव में रमण करता है । इस प्रकार की मेरी (आचार्य भी की) मान्यता है । इस प्रकार एक अपूर्व भिन्नरस निमग्न हुआ भी कोई एक भगवान अनेक रूप हुआ गर्जता है । अर्थात् आत्मा एक अखण्ड ज्ञानधन स्वभाव २२५

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