________________
स्तुविशति स्तोत्र
ज्योति स्वरूप यह कौन अद्भुत महिमा है जो समस्त विश्व को आत्मरूप से ग्रहण करने वाली चेतना शक्ति है जो स्व तथा पर दोनों ही जिसके प्रभाव से प्रभावित हुए त्रैकालिक वस्तु की अनन्त पर्यायमालाएँ एकसाथ, एक ही समय में मकरन्द विन्दु सदृश समाविष्ट हो रही हैं । हे भगवन् अपूर्व , अनंत हैं | अभिप्राय यह है कि आपके स्वभाव में चित्कला पंकज में निहित पराग सदृश समाविष्ट हुई भी विश्वव्यापी हो रही है ।। १६ ।।
__ आपकी चित् स्व:। पहिमा पूर्वमा कम से आप विदामन नहीं करती है | तथा पूर्व पर्याय अन्य हो और अपर भिन्न हो इस प्रकार भी प्रतिभासित नहीं होती है । अन्य प्रकार भी कोई स्थिति नहीं है । निरन्तर ही यह तो पूर्वापर सम्बन्ध से व्याप्त एकत्व पने से ही परिभाषित प्रकाशित होती है । अनादि से तदुरूप होती हुई यह अनन्त काल पर्यन्त अपने अनन्त ज्ञान घन स्वरूप से वर्तन करती हुयी सुरम्य रूप से दीप्तिमान थी, है, और रहेगी । इस प्रकार हे भगवन् आप नित्य होकर भी अपनी चिद् पर्यायों से परिवर्तित भी हो । इस प्रकार अपने निज स्वभाव में भरित हुए आप त्रिकाल क्रम से भी व्याप्त रहते हो । अर्थात् निजस्वभाव स्थित हुए परिवर्तन शील पदार्थों के भी ज्ञाता रहते हो ।। १७ ॥
संसार रूप गहन, गम्भीर एवं गूढ रूप संसार कन्दरा में संवृत हुए भी नित्य अपने स्वभाव में प्रकाश किरणों से व्याकीर्ण होते हुए भी निज स्वभाव रत रहते हो । उत्ताल तरंगों से तरंगित संसार कलिकाकलापों के विलास-हास में उन्मजन - निमज्जन करते हुए कालरूप वायु बेग के झकोरों से आन्दोलित भी होते हो । प्रारम्भित क्रम व अक्रम विभ्रम से भ्रमित किये जाने पर भी परिवर्तनशील इन लीला समूहों द्वारा ताडित भी किये जाते हो । परन्तु तो भी निश्चय से अपने ही अविचल आत्म स्वभाव में ही रमण करता हुआ आपका चैतन्यनीर का पूरे-वेग से उछलता अपने ही चैतन्य रस में स्फुरायमान