Book Title: Chaturvinshati Stotra
Author(s): Mahavirkirti
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 314
________________ चतुर्विंशति स्तोत्र राग-द्वेषादि दोष समूह का सम्यक् प्रकार निग्रह करने के लिए परमोत्तम कार्य करने को तत्पर उत्कृष्ट तपश्चरणादि कार्य करने प्रयत्न करने में ही 'तत्पर रहते हैं । उन योगियों का योगफल अतिप्रबल कर्म ग्रहों से गाढ बंधन विहित फल कभी भी व्यर्थ नहीं होता | क्योंकि वे प्रगाढ बधन बद्ध नहीं होते । शुद्धोपयोग से किंचिद् स्खलित होकर भी यदि निश्चल दशा से स्पन्दित भी हो गये तो भी अन्तरंग में वैराग्यभाव की महिमा से क्रम से कर्मबन्धन से मुक्त ही होते हैं । स्वध्यान में निश्चल - निष्पन्द होने पर भी सुसुप्तदशावत् रहते हुए भी वे अपने अन्तः करण आत्मोद्यान में विकसित आत्मीय गुण कंज को मुकुलित ही करते हैं । इसके विपरीत अज्ञानी बंधन को प्राप्त होने वाले पशु नवीन कर्मों से बंधनबद्ध हो जाते हैं । आचार्य साधुजनों को संबुद्ध कर रहे हैं कि यदि तुम अपनी योग साधना से तनिक भी च्युत हुए तो बन्धन बद्ध हो जाओगे । अतः अपनी योगसाधना में तन्मय रहो ||१२|| यदि अष्टविध कर्मों का कर्ता कर्मों से विरक्त नहीं होता है तो कर्मास्रयों का आना होता ही रहेगा । जिस प्रकार रस्सी बटने वाला उसे बटता ही रहेगा तो वह वृद्धिंगत ही होती रहेगी । उसी प्रकार कर्माश्रवों को रुद्ध नहीं किया तो वे सर्वाङ्ग से वेष्टित होते रहेंगे। क्योंकि रज्जू भांजने वाले अंधे के समान यह भी अज्ञान्धकार से प्रमादी हो रहा है । परन्तु, जिस समय ज्ञान घनरूप अद्भुत स्वरूप को प्राप्त कर लेता है तो इसके मन, वचन और काय वर्गणाओं के स्पन्दित ( चंचल ) रहने पर भी ये कर्मास्रव के कारण मात्र रहते हैं तो वे कर्मवर्गणाएँ आते हुए भी यानि सत्ता में रहकर भी असत्ता समान हो जाती हैं। क्योंकि योगों से प्रकृति, प्रदेश रूप बंध ही होता हैं । कषायों के नहीं रहने से स्थिति अनुभाग बंध नहीं होता। इनके अभाव में यह आसव निराश्रव वत् निष्फल ही हो जाता है | अतः उनका सद्भाव भी अभाव के समान है ||१३|| २२४

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