Book Title: Chaturvinshati Stotra
Author(s): Mahavirkirti
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 312
________________ चतुर्विंशतिस्तोत्र और दृढरूप हुए उपयोग की महिमा प्रकट हुए आप केवल मात्र देखते ही हो । अतः व्यक्तियों या विशेषों से सर्वथा भिन्न अन्य कोई सामान्य नही हैं | व्यक्त एवं अव्यक्त शक्तियों से परिपूर्ण ही द्रव्य होता है । विशेषों से सर्वथा पृथक कोई तत्त्व नहीं होता है । विशेषों से सर्वथा भिन्न कोई भी कहीं भी सामान्य चिद्रूपता नहीं है और न ही सामान्य चिदशक्ति से सर्वथा भिन्न विशेषों का ही अस्तित्व है । व्यक्ताव्यक्त-सामान्य विशेषों की मुख्यगौणता रूप ही तत्त्व विवेचना सफल, यथार्थ संशय-विपर्यय - अनध्यवसाय रहित ही हे जिन आपके क्षायिक ज्ञान में स्पष्ट हुआ है । अतः एक अभिप्राय या आशय गौण होता है तो तत्क्षण अन्य अपेक्षा अभिप्राय प्रकट होता है । वैसा ही आगम में निरूपित है | स्वयं अध्ययन कर जानों श्रद्धा न करो। चूंकि मुख्य-‍ -गौण धर्मों को एक साथ प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है । अस्तु उनको क्रमशः जान कर व समझकर यथास्वरूप गौण मुख्य कर ही ज्ञात करना चाहिए ||८|| हे प्रभो ! सम्पूर्ण प्रदार्थों को आप स्पष्ट करते हुए बाह्य समस्त पदार्थों को अहर्निश अपने ज्ञान का विषय बनाते हैं । क्योंकि क्षायिक ज्ञान का यही स्वभाव है । दृष्टच्य जो कुछ हैं उसे देखता है - झलकाता ही है । यदि दृष्ट लोक न हो तो प्रभु सर्वदृष्टा' किस प्रकार कहे जायेंगे ? जिस प्रकार ईंधन जलावन के अभाव में क्या कभी कहीं पर भी किसी के द्वारा जाज्व ल्यमान अग्नि शिखा देखी गई है ? नहीं । ईंधन को भस्म करने से ही वह 'अग्निज्वाला' प्रसिद्ध होती है । इसी प्रकार दृश्यमान जगत के रहने परही सर्वज्ञ प्रभु सर्वदृष्टा कहे जाते हैं । तो भी अशेष बाह्य पदार्थों को देखते हुए भी आप उनसे भिन्न सत्ता वाले ही रहते हैं । इस प्रकार रहे जिन ! आपका अनन्त दर्शन अपने ही दर्शनोपयोग रूप तेजोमय महान तेज सर्वओर से सर्व प्रकार शोभा प्राप्त होता है । उस असीम उपयोग से आप भी स्वयं पूर्ण दर्शनोपयोग से भरित शोभा से सुशोभित होते हैं ॥ ९ ॥

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