Book Title: Chaturvinshati Stotra
Author(s): Mahavirkirti
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 310
________________ चतुर्विशति स्तोत्र करते हैं वे ही कर्ममल को बलात् देखते हैं तथा अपनी तीक्ष्ण सम्यक् दृष्टि शक्ति द्वारा स्वाभाविक आत्म स्वरूप की अवस्था के तेजस्वी प्रकाशपुञ्ज को जानते हैं-ज्ञात करते हैं । अनुभव में प्राप्त कर लेते हैं ॥३॥ हे देव! जो भव्यात्मा नित्य ही उत्साहरूपी पवन वेग से कषाय रूप कर्म ग्ज के कारणीभूत घनीभूत हुए उदयावली को प्राप्त स्पर्द्धकों की श्रृंखला का उल्लंघन कर, लाघव गुण प्राप्त करते हैं, वे आत्मा के बाह्यान्यंतर स्वभाव रूप का उल्लंघन नहीं करते हैं | अपितु अपने सम्पूर्ण निज स्वभाव को प्राप्त कर पूर्ण स्पष्ट, प्रकट, प्रत्यक्ष उपयोग की गरिमा को उदरस्थ करने वाली आत्मलक्ष्मी-विज्ञानधन स्वरूप को प्रकट कर विज्ञान धन स्वरूप हो जाते हैं । अर्थात् सर्वज्ञ हो जाते हैं ||४|| जो वाह्याभ्यन्तर संयम रूपी परिधि-बाढ लगाने पर पूर्ण स्वातत्र्य रूप दर्शन ज्ञान के आराधक सन्त जन अपने श्रामण्य-साधुत्व रस में अवगाहन कर अपनी सहज स्वाभाविक अवस्था को ही सम्यक् निरीक्षण करते हैं । वे साधु-सन्त पूर्व में अप्राप्त, अपूर्व सम्पदा को प्राप्त करते हुए शीघ्र ही उसके साथ कर्मरूप कुशल वृक्ष की मूल-जड़ को ही काट देते हैं । संसारावस्था का मूल कर्म ही हैं । मूलोन्मूलन होने पर वृक्ष फलित नहीं होता उसी प्रकार कर्म द्रुम का मूलोच्छेदन होने पर संसार रूप फल भी फलित नहीं होता ||५|| जो श्रमणराज कषायों को चारों ओर से कर्षण करने में व्यग्र नहीं होते हैं । निरन्तर अथक श्रम से उन्हें क्षीण करते हैं वे ही अपने श्रामण्य पने को स्थिर कर आत्मस्वभाव की गरिमा से सम्पन्न शुद्धोपयोग को ग्रहण करते हैं । अपने अन्तकरण में उस्थित उपयोगात्मक तत्त्व को प्राप्त करते हैं । वे ही अपने सफल श्रामण्य द्वारा हे ईश! अपने उस तीक्ष्ण प्रखर प्रताप स्वरूप, अखण्ड पिण्डी भूत निज व्यपार के सार रूप को देखते हैं । हे जिन! वे ही

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