Book Title: Chaturvinshati Stotra
Author(s): Mahavirkirti
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 298
________________ चतुर्विंशति स्तोत्र वाला प्रकाशित होता है । तथा अशेष विश्व को भी अपने निर्मल स्वभाव में आरोपित कर प्रकाशित करता है । तथाऽपि समस्त विश्व के तत्त्व अपने स्वभाव में निज शोभा स्वभाव भाव का आश्रय लिये ही रहते हैं । अशेष पदार्थ अनंत विश्वव्यापी ज्ञानशरीर में प्रविष्ट हुए प्रकाशित होते हुए स्पष्ट रूप से स्फुरायमान होते हैं । हे प्रभो! इस प्रकार यह चैतन्य वल्लरी पल्लव रूपी तुला को तीनलोक को मालारूप से आलम्बित करती है । अर्थात सम्पूर्ण विश्व को यथा - तथा सुनिश्चित गणतष्टा सा न त काल है ।। ११ ॥ हे भगवन् सावधान · उत्साही हृदय धारी देव, व असुरों द्वारा तर्कित-तर्कना करने पर संकोच व विकासरूप शक्ति युक्त चित स्वभाव आपका क्या है ? नाना तर्कों से भी अगम्य कैसा आश्चर्यकारी यह आपका चैतन्य स्वभाव है । एक ही स्व महिमा में निविष्ट महातेज स्थित होने पर भी अपनी चैतन्य अनेक शक्तियों को स्फुरायमानकरता हुआ यह अनन्त और अमित-असीम विश्व को प्रकाशित करता है । यह कौनसी आपकी अनोखी चित्कला है ? यह क्षायोपशमिकज्ञान से सतत, सदैव अगोचर ही है || १२ ॥ हे भगवन् ! निष्कम्प, एक और दृढ़ उपयोग को सम्पूर्ण सामान्य से अर्पित किये जाने पर स्पष्ट रूप से सम्पूर्ण शक्तियों युक्त द्रव्य प्रतिभासित होता है | क्योंकि प्रमाण अनन्तशक्तियों को भिन्न-भिन्न होने पर भी समुदाय रूप से ही ग्रहण करता है । तथा क्रमिक पर्यायों से समस्त परिपूर्ण विश्व को भिन्न-भिन्न रूप से प्रकट करता है | परन्तु ये गुण द्रव्य - पर्याय अपेक्षा अभिन्न-भिन्न रूप प्रतिभासित होते हैं | यथार्थ में एक रूप ही द्रव्य है क्यों कि इनमें प्रदेश भिन्नता नहीं है । समस्त गुण-पर्याय वेग-प्रवाह को अवरुद्ध कर एक द्रव्य स्वरूप आपमें लीन हो जाती हैं । इस प्रकार एकानेक रूप २१३

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