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= चतुर्विंशति स्तोत्र - ज्योति का स्तवन कर रहे हैं । कारण स्वयं अपनी ज्ञानज्योति को इसके माध्यम से जाग्रत करना चाहते हैं ।। ८ ।।
भगवन् आपकी विशाल ज्ञानकला ज्योत्सना सम्यक् चारित्ररूप पर्याय को धारण करेगी । उस समय अधिक तेजस्विनी हो रव्य में अपने को सुरक्षित करती है । विविध पर्यायों द्वारा विविधरूप धारण कर भी महान् तेजस्वी हुयी भी अवस्थिति-एकान्तेन स्थिरता को धारण नहीं कर पाती । हे धीर ! आप एक अखण्ड चित्पिण्ड होकर भी अपने स्वभाव भाव से भारत अनेक रूप भी होते हैं । इस चैतन्य स्वभाव इस अद्भुत महिमा को विश्वव्यापी बनाने वाला आत्मतत्त्व किसका है, यह देखा नहीं जाता 1 अभिप्राय यह है कि चैतन्य चित्स्वभाव हे ईश! किसी का भी विषय नहीं बनता, कारण इतनी सूक्ष्म गंभीरता प्राप्त है कि किसके भी द्वारा नहीं देखने आती । क्यों कि . यह अतिसूक्ष्म, सर्वव्यापी होकर भी सर्वसाधारण का विषय नहीं होती
यह ज्ञानज्योति पुञ्ज प्रकाशित होता है तथा प्रकाशित-प्रकट नहीं होता है । हे भगवन्! यह आप द्वारा प्रतिपादित तत्त्व का स्वरूप है । यतः क्यों कि यह भाव (उत्पाद या सद्भाव) और अभाव (यानि नाश) भी उपलब्ध होता है । इसलिए यह तत्त्व सद्भाव और असद्भावरुप धर्मो से संयुक्त है । इस प्रकार सत् और असस्वरूप को धारण कर भी अभाव रूप प्राप्त नहीं होता । अपितु नित्य ही - निरन्तर प्रकाशि होता हुआ ही है । इस अविरल रूप निरंतर प्रकाशित ज्ञानधारा में संलीन एक अखण्ड धारा से सिंचित हुयी निज स्वभाव धारा परिणत हुयी चैतन्य पिण्ड, उग्र चेतना रूप वृक्ष आनन्द रस विलास द्वारा अभिसिञ्चित होता हुआ सञ्चित स्व सभाव शक्तियों युक्त चैतन्य-पिड स्वरूप महीरुह है ॥ १० ॥
यह परिच्छेद रूप अनन्त ज्ञान जगताकार विकास भाव से परिपूर्ण ज्ञातृत्व शक्ति से अन्तरंग ज्ञानभाव से अति गूढ होता हुआ भी अमित प्रकाश