Book Title: Chaturvinshati Stotra
Author(s): Mahavirkirti
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 303
________________ चतुर्विशति स्तोत्र हे भगवन्! आपकी निष्कम्प, अप्रतिघातक उपयोग की गरिमा के आश्रय को प्राप्त आत्माराम - आत्मानन्द महोदय के प्रभाव का क्या कहना? वह तो अवर्णनीय है | कौन उसके वर्णन में समर्थ हो सकता है ? कोई भी नहीं । जिसका आज भी अन्तर्व्यापी गृढ़, अचल चिद् ज्ञान क्रीडा द्वारा, आकुलोत्पादक, निरन्तर क्रीडा मात्र से आन्दोलित विश्व-संसार इससे परे ही भीत हुआ भटकता है । अभिप्राय यह है कि भगवन् ! आपके अप्रमित प्रभाव से भय प्रकम्पित संसार आपके सम्मुख आ ही नहीं सकता है ।। २४ ।। समस्त बाह्याडम्बर त्याग से उच्छलित केवल ज्ञान के वेगशाली प्रवाह में आप प्राप्त हो चुके । उसी में स्नान किया । अत्यन्त प्रमाद हीन हो पूर्ण जाग्रति के साथ मैं भी उसी में निरंतर नहीं तैर सकता क्या ? मेरा चिद्विलास तरंग लीला से आन्दोलित तरंगों के स्पष्ट भार से जर्जरित हो रहा है |आचार्य श्री प्रार्थना करते हैं कि विभावो की तरंगों में उलझा मेरा निज स्वरूप नष्ट नहीं हुआ है, अपितु अपने आत्मस्वभाव में डूब कर विलीन छुपा हुआ है । अतः वस्तु तत्त्व का सर्वथा नाश न होकर तिरोभाव व आविर्भाव होता रहता है, पर्यायों की अपेक्षा । अस्तु, मेरा भी विश्व व्यापी ज्ञान स्वभाव संकुचित होकर शरीर कारागार प्रमाण हो रहा है । इसका कारण मेरा ही प्रमाद व अज्ञान भाव है | हे प्रभो! आपके प्रसाद से मेरा भी अज्ञान व प्रमाद नष्ट हो यही महती भावना है || २५ ।। २१८

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