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चतुर्विंशति स्तोत्र
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होता है | अभिप्राय यह है कि परिवर्तनशील संसार की समस्त शुभाशुभ गनियाँ अपने प्रभाव से आप में प्रविष्ट होती हैं परन्तु आपको तनिक भी स्पर्श नहीं कर पातीं । ऐसा अपूर्व है आपका चैतन्य स्वभाव ।। १८ ।।
हे प्रभो! संसारी प्राणी निरन्तर अन्तकरण से क्षुभित हुआ, प्रमादवशीकृत व्याकुल हुआ धूम रहा है । बारम्बार इस लोक में नानापर्यायों में भयंकर ताण्डव नृत्य करता हुआ स्व स्वभावच्युति से भ्रमण कर रहा हैं । विभाव परिणति के वशीभूत होकर कालानल से प्रचलित हुआ छटपटाता चञ्चल अशान्त हो रहा है । इस प्रकार संसार उदधि में तूल-रुई के समान ८४ लाख योनियों में तैर रहा है । एक आप ही अपनी चित्कला में अचलित हुए अपने शुद्ध चैतन्य स्वभावोदय कर उसी में स्थित हुए निष्कम्प हुए हो || १९ ।।
हे स्वामिन् ! आपकी चैतन्यपूर्ण ज्ञान प्रभा अनन्त दर्शन के साथ मंत्री भाव को प्राप्त अत्यन्त पुष्ट हो गई है । अतः विश्वव्यापी हुयी प्राणीमात्र को तृप्त करती हुयी अपने स्वानुभूति रूप, स्वसंवेदन से निःसृत अनन्त ज्ञानसुधारस आयायित स्व स्वभाव में उल्लसित हो ज्ञानामृत का निर्धार प्रवाहित कर रही है । निश्छिद्र सघन आनन्दघन भरित अमर तरंगों से भारत निजरस से भरी उसी रस से स्वयं को आर्द्रकर निमग्न हो रही है । हे प्रभो! यह अपने ही महान तेज से स्वयं में ही प्रकाशित निराकुलतानुभवकरती हुयी चिरन्तन स्थिति प्राप्त हो गई है । अतः अनन्त काल पर्यन्त इसी निर्विकल्प अवस्था में विराजमान रहेगी ।। २० ॥
आप निरन्तर एक मात्र स्वीपयोग ज्ञान-दर्शन लीन निरीहवृत्ति वाञ्छारहित शुद्ध स्वभाव रत हैं । अतः आप कृतकृत्य हो गये हैं । अब कर्तृत्व पना सदैव को समाप्त हो गया वीतरागी होने से | यद्यपि