Book Title: Chaturvinshati Stotra
Author(s): Mahavirkirti
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 286
________________ चतुवैिशतिस्तांध युगपत् सिद्ध हो जाते हैं भिन्न-भिन्न नयों की अपेक्षा | अतएव हे विभो ! आपके समीचीन सिद्धान्त पदार्थों में अविरोध रूप से क्रम और अक्रम पने को सिद्ध करता है ॥ १७ ॥ पर पदार्थों को अपने में प्रतिविम्बित पने से प्राप्त कर, परोपकार पने का वहन करता है तो भी स्वयं उन पदार्थों से रहित ही रहता है, उन्हें आत्मसात् नहीं करता । पर के सम्पूर्ण आकारों से व्याप्त होकर भी उनसे अस्पर्शी ही बना रहता है, ऐसा अलौकिक आपका पूर्ण विशुद्ध ज्ञान है । इस प्रकार आपका यह उत्कृष्ट ज्ञान, अपने ही ज्ञानामृत रस से परिपूर्ण भरा, आनन्दघनस्वरूप व्यापार से स्पष्ट एकसाथ घनीभूत आत्मा में निष्ठ हुआ विस्तृत प्रकाशित होता है । अर्थात् लोक- अलोक व्यापी होता है || १८ || इस प्रकार परमानन्दी ज्ञान का आधार ज्ञान सुधारस की धारा ही है, उसी से यह शोभायमान होता है । तो भी, यद्यपि इस ज्ञानसुधारस से सर्वत्र पूर्ण खचाखच भरा रहता है । तथाऽपि एकान्तेन एकान्तपने से मात्र ज्ञान रूप से ही अवगाह्य नहीं होता | क्योंकि कि असीम एकज्ञानस्वरूप द्रव्य के आश्रित निजपर्यायों से भी व्याकीर्ण रहता है । अतः अनन्त दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्तगुण भी एक साथ उल्लसित होते हुए परिणमन करते हैं । इस प्रकार स्व-पर गुणों को भी एक साथ धारण कर चिदाकार आत्मा विशिष्ट रूप से शोभायमान होता है ।। १९ ।। हे भगवन! आप में इस प्रकार (उपयुक्त प्रकार) से निरन्तर चारों ओर से ज्ञानोदय द्वारा सम्यक् प्रकार से उलासित होता रहता है । स्व स्वरूप ज्ञान और पररूप सुखादि (ज्ञानापेक्षा भित्र) दोनों ही अतिव्याप्ति व अव्याप्ति दोषों से रहित निर्दोषरूप से आपमें शोभायमान हुए सुप्रकाशित रहते हैं 1 भेददृष्टि से ( व्यवहारनय से ) पररूपता को प्राप्त होते हुए भी. शुद्ध होकर भी स्व स्वरूप परायण ही रहते हैं । क्योंकि ज्ञान गुण के २०६

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