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चतुर्विंशतिस्तोत
विषय - कषायों की वासनारूप सेना परिग्रह से मुक्त ( रहित ) होने पर स्व स्वभाव से सर्वथा भिन्न प्रतीत होने लगती है । हे प्रभो अब वह विकारभावों के व्यापार के लिये समर्थ नहीं होतीं । तब क्या होता है ? आपकी चिन्मयी स्वाभाविक प्रकृति का आश्रय लेकर स्पष्ट रूप से शुद्ध स्वभाव रस अभिसिक्त विकसित होती हुयी चिज्ज्योति निष्कम्प उपयोग से आप्लावित होती है । इस प्रकार चारों ओर अपना प्रकाश पुञ्ज विखेरते हुए यह अमर ज्योति मात्र ही रहती है ॥ ९ ॥
अत्यन्त प्रगाढ़, सघनः सूक्ष्म परिग्रह रूप ग्रन्थि के पूर्ण असमर्थ हो नाश हो जाने पर आपकी यह ज्ञान ज्योति न ज्ञाता होती हैं और न भोक्त ही । अर्थात् कर्ता भोक्ता का व्यवहार समाप्त हो जाता है । जब परिग्रहरूप पदार्थ का कर्ता ही नहीं हो तो भोक्ता भी क्यों होगा ? नहीं होगा । तो भी कर्ता भोक्ता तो है पर किसका स्वयं अपने ही स्वभाव का कर्त्ता है और उसी निजस्वभाव स्वरस - स्वसंवित्ति का ही भोक्ता है । क्योंकि उस रूप में ही परिणति हो रही है और होगी ॥ १० ॥
हे भगवन् अपने त्रैकालज्ञ ज्ञान से तीनोंलोक में व्याप्त क्रीड़ा द्वारा आप ही यथार्थ पृथ्वीपति हैं । क्योंकि आप ही एक मात्र त्रिकालवर्ती चिन्मय ज्योति से स्फुरायमान रहते हैं । अपनी स्वयं की अनन्तशक्तियों को एकसाथ प्रयुक्त करने में आप पूर्ण सक्षम हैं । आपने स्याद् पद लांछित सिद्धान्त से प्रतिक्षण वस्तु स्वरूप को ज्ञातकर तथा अनन्त दर्शन से देखकर निरूपित किया है । स्वाभाविक निज क्रीडारसनिमग्न मूर्त्ते ! आपका सिद्धान्त भ्रामक नहीं हो सकता है । क्योंकि आप विश्व दृष्टा व ज्ञाता है ॥ १ ॥
जिसमें वाह्य जगत के सम्पूर्ण पदार्थ चारों ओर से स्फुरायमान हों ऐसे स्व सुखानन्द रस से परिपूरित ज्ञान सरोबर का ही एक मात्र
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