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शिति स्तोला
भी जाज्वल्य रहती है । अपने सहज स्वाभाविक, व्याप्ति द्वारा. अवान्तर सत्ताओं को रुद्ध कर स्वयं चैतन्य ज्योति में समाहित रहती है । तथा अपने रूप आप एकातेन अर्थात् एकमात्र ज्ञान-दर्शन स्वभाव ही में तन्मय रह कर ही प्रकाशित होती हुयी रहती है स्वरस चैतन्य है उसी में तन्मय रहती है ।। ६ ॥
___संसारावस्था में शान्त स्वभाव और आतंक स्वभाव एक साथ अपने-अपने स्वभाव रस विलास सहित उत्पन्न होते हैं । आपने, हे प्रभो ! अपनी अचल चिद् कला पुञ्ज को उत्थित-प्रकट कर वृद्धिंगत विशुद्धि द्वारा इनके स्वभाव भेद को अनुभव किया । क्षोभकारी कषाय परिग्रह हैं, जिनके भार से आक्रान्त आत्मा आतंकित हो आरम्भादि में प्रवृत्त हो नाना प्रकार कष्टानुभव करती है । तथा ज्ञान कला के प्रकट होने पर ये कषायरूपोत्पन्न चित्राकारा प्रलय को प्राप्त होता है । अतः आपने अपने सत् उत्साह व उद्यम से ज्ञानकला द्वारा इसका विनाश किया । या यों कहें कषायपरिग्रह का सर्वथा क्षय कर चिद् रूप ज्ञानकला पुञ्ज प्रकट किया ॥ ७ ॥
___ जिस समय अन्तस्तत्त्व चिद् चैतन्य स्वभाव को तिरस्कृत करने वाली यह मनुष्य की विभाव परिणति निराधार हो, प्रगाढ़ कालिमा ग्रन्थि शिथिल होती है उस समय निजस्वभाव से परिपूर्ण, अचल यह सम्यक् ज्ञान ज्योति अपने विस्तृत रूप से प्रकाशित होती है । अभिप्राय यह है कि आत्मा और कर्मकालिमा मोह सूत्र से बंधन बद्ध हो रही है । अज्ञानांधकार विघटित हो तो ज्ञान ज्योति जले तथा उसके उज्वल प्रकाश में यह सन्धिवन्धन ज्ञात हो । इसका वितान नष्ट हो । तथा सम्यग्ज्ञान पुञ्ज मात्र का विस्तार प्रकाशित होगा ॥ ८ ॥