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यसुपिशति स्तोत्र
पाठ-२३ हे प्रभो! महा भयंकर मोहग्रह को परास्त कर अर्थात् जीतकर इस ग्रहचक्र से सर्वथा रहित होकर, अकम्प और अखण्ड हुयी बल अहर्निश उल्लास भरित, चारों ओर से जाज्वल्यमान हो रही है । तीव्र अग्नि स्वभावों को वहन करती हुयी चारों ओर जाज्वल्यमान अखण्ड रूप धारण कर ईंधन सदृश स्वयं की जाञ्चल्यमान हुयी अपने दाह्य स्वभाव हो जाने से अशेष कर्म बन्ध को, अनंत काल के लिए भस्म-सात् कर दिया । इस प्रकार अखण्ड आत्मा का तेज प्रकाश सम्पूर्ण विश्व को ग्रासी कर ईंधन के समान भस्मसात् कर स्वयं तदरूप से जाञ्चल्यमान प्रकाशित रहती है || अर्थात् संसार को बलात कवलित कर स्वयं ज्योतिमर्य रहती है । इस प्रकार अखण्ड प्रताप व प्रकाश युक्त हो अहर्निश प्रकाशित रहती है ।। १ ।।
हे भगवन् ! आप विश्वव्यापी, निर्भय , दृढ, विद्रुमवृक्ष (मुक्ताफलवृक्ष) के सदृश, कोमल, मधुर रस भरे अनन्त दर्शन व अनन्तज्ञान के निश्चल प्रकाश के द्वारा दिव्यवाणी से धर्मोपदेश प्रदान करते हैं । इस प्रकार की निर्बाध, अकाट्य दिव्यध्वनि के अतिरिक्त, निष्फल सामान्यजन की, वाक्यविलास भरे विइम्बित पदरचना से क्या प्रयोजन है । यह तो कोरी विडम्बना ही है । अस्तु, यह (मैं) आचार्य, हे ईश! आपही की अमोघ, यर्थाथ तत्त्वनिरूपक, सरस सरस्वती वाग्देवी की शरण में ही प्रविष्ट होता हूँ । अर्थात् उसी के द्वारा प्रतिपादित सन्मार्ग में प्रवेश करता हूँ || २ 11
अहर्निश ज्ञान रूपी ऐश्वर्य से चमत्कृत की गई, सहज-स्वाभाविक, एक विशिष्ट वीर्य का विलास करती हुयी, सोत्साह बनानेवाली, अतुल्य अगाध गहरी अशेष विश्व को तिरस्कृत कर अपने को विश्व
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