Book Title: Chaturvinshati Stotra
Author(s): Mahavirkirti
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 281
________________ चतुर्विंशति स्तोत्र व्यापी कर यह कौन दृष्टि है ? यह मेरे मन रूपी सरोवर में गर्जनाकरती हुयी, अत्यन्त आनन्द घन समूह को जाग्रत कर रही है । अभिप्राय यह है कि आपके अनन्त दर्शन-ज्ञान शक्ति के प्रति मेरी अकाट्य-श्रद्धा, भक्ति मेरी भी सम्यग्दर्शन रूप आत्मशक्ति को मानों प्रत्यक्ष करा रही हैं, आनन्दघन स्वरूप को दर्शित कर रही है ।। ३ ।। हे भगवन्! आपकी चैतन्य चिच्चमत्कार से निष्पन्न ज्ञानज्योति ज्वाला, पर सहाय विमुख होती हुयी ईंधन (जलावन) के बिना ही. एक अद्वितीय रूप से एक साथ अश्रान्त, अविराम रूप से अहर्निश जलती ही रहीत है | यही, नहीं अपने अमर, सर्वव्यापी, वृहद् प्रकाश में सम्पूर्ण विश्व को त्रिकालरूप से अपने में व्याप्त कर प्रकाशित-द्योतित करती है | एकान्त रूप से अपने अनन्त प्रकाश में समाहित किया है. कर रही है और करती रहेगी । सम्पूर्ण जगत की नाना-विचित्र पदार्थ और पर्यायों की अपने में समाहित कर प्रकाशित करती हुयी स्वंय एक, अखण्ड, निलेप ज्ञायकभाव में ही स्थित है ॥ ४ ॥ हे ईश! प्रभो! आपकी विशाल, विस्तृत दर्शनशक्ति स्वरस भरित सुमन को और विश्व को भिन्न-भिन्न रूप से यथा-तथा निश्चय से भिन्नाभिन्नरूप सुनिश्चित करते हो | यह पर से भिन्न भी और अभिन्न भी है । आत्मज्ञान और विश्व एकाकार नहीं है । अपितु भिन्न-भिन्न ही हैं । इस प्रकार व्यवहार-निश्चय से तत्त्व अनेक व एक रूप सिद्ध होता है । निःसन्देह यह अनेकान्त ही यर्थाथ वस्तु स्वरूप को निर्धारित करता है । अन्य कोई नहीं ॥ ५ ॥ यह एकान्तेन एक स्वरूप से भरी, अपने भार से भरित होकर भी संसार के अनंत विचित्र नानाकार रूपी परिणमित जगत को एक साथ अपने ज्ञान प्रकाश सरवर में अवगाहना प्रदान करती है । इन नाना कारों के एक साथ एक समयवर्ती झलकने से यह ज्ञान ज्योति

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