Book Title: Chaturvinshati Stotra
Author(s): Mahavirkirti
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 271
________________ चतुर्विंशति स्तोत्र भाव से इसमें नहीं है । इस प्रकार आपने स्व चतुष्टय और पर चतुष्टय की अपेक्षा समस्त द्रव्यों में रिक्तता और पूर्णता निर्दिष्ट की है ॥ ११ ॥ I ये समस्त तत्त्व या पदार्थ अपने-अपने सहज स्वभाव में नियत हैं। यद्यपि लोक में सभी संश्लेष रूप में मिश्र हैं तथाऽपि अपने-अपने स्वभाव में स्थित हुए स्वयं भिन्न-भिन्न प्राप्त होते हैं । आपकी सर्वज्ञ ज्ञान ज्योति अपने स्वस्वभाव रस से सर्वत्र लोकालोक में व्याप्त हो विस्तृत हो रही है। समस्त जगत उसमे डूबा है । तथाऽपि लोक से भिन्न ही है । हे भगवन् फिर आपके सिद्धान्त में संकरपना किस प्रकार रह सकता है ? नहीं रह सकता । अशेष द्रव्य अन्योन्य प्रविष्ट हैं परन्तु अपनी सत्ता का परित्याग कोई भी नहीं करता यह आपका ध्रुव, निराबाध सिद्धान्त है ॥ १२ ॥ | मोह कर्म प्रकृतियों के आम्रव का मुख्य हेतु है । मोह मुग्ध अज्ञानी प्राणी अहर्निश कर्म किट्टकालिमा से लिप्त रहता है। और होता जाता है | मोह और मोहरूप परिणति इन हेतुओं का सद्भाव जब तक है तब तक यह आत्मा इनके साथ एक रूप हुआ अशुद्ध बना रहेगा | परन्तु मोह के क्षीण होने पर तो अन्य आवरण भी विलीन हो जायेगे और आत्मा अपने सहज निज स्वभाव में निश्चय से विलास करेगी । उस अवस्था में आत्मा में आत्म स्वभाव- गुण धर्म ही रहेंगे । अन्य कुछ भी न होगा । इस स्वभाव की स्थिति सीमातीत होगी, तथा सहज ज्ञान ज्योति पुञ्ज ही उसका स्वरूप होगा और उसी में अनन्तकाल पर्यन्त निमग्न रहेगा । अर्थात् यह मुक्त अवस्था चिरस्थायी, अवच्छिन्न रूप से अनन्तकाल तक उत्परिवर्तनीय रहेगी || १३ | हे भगवन् ! आपके मोह का पूर्ण अभाव हो जाने से पूर्णतः वेग के साथ ज्ञान ही मात्र उछलता हुआ चित् स्वभाव ही ज्योतिर्मय १९४

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