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चतुर्विंशति स्तोत्र शब्द का ज्ञान है तो कथंचित् एक अनेक भी है, और अनेक एक भी है । क्योंकि एकानेक समाहार एक साथ उत्पन्न होते हैं | युगपत् स्वभाववाले इसी प्रकार उभयरूपता से अनुभावित होते हैं । अतः गुण गुणी या द्रव्य-पर्यायों में पृथक्त्वपना नहीं होता है | अन्यत्व होता है क्योंकि दोनों में आश्रय एक है । प्रदेश भेद नहीं होता है ।। ७ ।।
वस्तु तत्त्व में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यता एक समयवर्ती हैं । कारण उत्पाद सर्वथा भिन्न, व्यय स्वतंत्र पृथक् और ध्रौव्य भिन्न है ऐसा मानने पर तीनों गुणों में सर्वथा भेद हो जायेगा । यह भयंकर पक्षपात दोष उत्पन्न होगा । तत्त्व व्यवस्था ही नहीं सिद्ध होगी । अस्तु, आफ्ने यथार्थ तत्त्व सिद्ध करते हुए उपदिष्ट किया कि इन तीनों में समयभेद नहीं होता । क्योंकि उत्पाद, व्यय, ध्रुव का आलम्बन करते हुए प्रवृत्त होते हैं । एक काल में एक ही वस्तु में तीनों का समाहार रहकर वस्तु स्वरूप स्थित करते हैं । नामाद अपेक्षा तानों में पर्याय दृष्टि से भेद भी है ५. निश्चय से अभेद है यह 'स्यात्' पद से निर्बाध सिद्ध हो जाता है जो निष्पक्ष है यदि तीनों में सर्वथा भेद माना जायेगा तो सकल शून्यता का प्रसंग आयेगा । अतः स्यात् लाञ्छन युक्त ही सही है ।। ८ ॥
हे देव भाव और अभाव परिणति करते हुए ये सद्भाव को ही सिद्ध करते हैं । क्योंकि निश्चय से सद्भाव ही अभाव को निष्पन्न करता है । यदि सत् का नाश हो जाय तो अन्य फिर क्या रहेगा? अस्तित्व का नाश सर्वथा माना जाय तो उत्पत्ति केवल उल्लासमान रहेगी । अर्थात् कथन मात्र रहेगा । क्योंकि सत् के अभाव में किसका व्यय और किसका उत्पाद कहा जायेगा । यदि दोनों को पृथक् कहा जाय तो निश्चित ही वे भी तत्त्व रूपता को प्राप्त होंगे । क्योंकि जैसा सत् है उसी प्रकार वे भी सत् रूप रहेंगे । अतएव हे भगवन् नाशोत्पाद का आधारर्मूत द्रव्य होता है