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चतुर्विशति स्तोत्र वहीं ध्रुव कहलाता है । इस प्रकार ये तीनों-उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य एक समयवर्ती ही सिद्ध होते हैं | तथा उत्पाद-और व्यय. तथा ध्रौव्यत्व ये पर्याये हैं और इनका एकीकरण जिसमें है वहीं तत्त्व है || ९ ।।
प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव के अभावों में से कोई एक अभाव के साथ भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से सभी अभाव एक सद्भाव की ही सिद्धि करते हैं । इन चारों अभावों से आक्रान्त (मिश्रित) होकर भी हे भगवन् आपके सिद्धान्त में एक मात्र सद्भाव या सत्तामात्र ही सिद्ध होता है । आपके मतानुसार एक ही पदार्थ इन चारों प्रकार के अभावों को हठात् धारण कर भिन्न रूप अर्थात् सद्भाव रूप से ही परिणमन करता हुआ द्रव्य शोभित होता है । यथा सुवर्ण खण्ड में कंकण का अभाव प्रागभाव है, उसी हेम खण्ड में कंकण पर्याय धारण की यह दुलीका प्रध्वंशाभाव हुआ, कञ्चन रजत नहीं है यह अन्योन्याभाव है तथा जाम्बूनद धातु पने का कभी भी त्याग नहीं कर सकता यह अत्यन्ताभाव है । इन चारों अभावों से युक्त हुआ भी सोना अपने सद्भाव रूप ही द्रव्य है । इस प्रकार चारों ही अभाव द्रव्य की सत्ता ही सिद्ध करते हैं वह आपका अनेकान्त सिद्धान्त सम्यक समीचीन सिद्ध है || 90 । ।
___ जो पूर्ण भरा है वह भरपूर ही होता है | तथा जो रिक्त है वह खाली ही रहता है । दोनों पक्ष विरोधी हैं । अतः एक साथ नहीं रह सकते । तथाऽपि हे जिन! आप मे इन दोनों ही विपरीत स्वभावों का निर्विरोध रूप से समाहार देखा जाता है । स्याद्वाद दृष्टि से आपने इसे सिद्ध किया है जो प्रत्यक्ष सिद्ध है | यथा-संसारावस्था में जन चाहते हैं वे राग-द्वेषादि परिणतियाँ आप में सर्वथा नहीं हैं अतः आप विभाव भावों से सर्वथा रिक्त हैं, परन्तु अपने अनन्त ज्ञानादि गुणों से पूर्ण रूपेण भरित हैं । इसी प्रकार संसार अपनी विभाव रूप पर्यायों से पूर्णतः परिपूर्ण भरा है, परन्तु जो आप में स्व स्वभाव से भरा है, वह नेतृत्व