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चतुर्विनति स्तोत्र
हे प्रभो! भिन्न-भिन्न पदार्थों में अभेदता तथा अभिन्नों में भेद सर्वथा नहीं होता । एक दूसरे के स्वभाव का स्पर्श नहीं करते । परन्तु विवक्षा के अनुसार नयों के द्वारा भेटाभेट दोनों रूगों परिणाम का है । अर्थात् द्रच्यार्थिक नय विवक्षा से अभेद और पर्यायार्थिक नय से एक ही द्रव्य में भेदपना भी सिद्ध होता है । अत: आप भेदाभेद रूप से परिणमित होते हुए भी नित्य हैं । अर्थात् आपकी क्षायिक शक्तियाँ अनित्य नहीं हैं । भाव-निक्षेप की अपेक्षा भिन्न-भिन्न पदार्थों में भिन्नरूपता ही साक्षात् साधकर बरदान होता है और अभेद विवक्षा में अभेद रूपता । तथाऽपि अपने-अपने स्वभाव से कोई भी च्युत नहीं होते । हे स्वामिन्! इस आपके सापेक्ष सिद्धान्त का परित्याग करने वालों की क्या अन्य गति है ? अपितु नहीं है ॥ ५ ॥
__सापेक्ष सिद्धान्त के स्वीकार नहीं करने पर क्या विशेषों के द्वारा सामान्य की महिमा का रस उल्लसित हो सकता है ? इसी प्रकार सामान्य के बिना क्या विशेष (गुण) अपने अस्तित्व को सुरक्षित धारण कर सकते हैं ? नहीं कर सकते । क्योंकि गुण या विशेष-पर्यायें विशेष्य या गुणी के आश्रित हुए ही अपनी सुरक्षा कर सकते है । एक द्रव्य में समाहित होकर ही अनन्त पर्यायों का पुञ्ज विस्तार को प्राप्त होता है । हि-निश्चय से आप ही वस्तु तत्त्व है । आप में ही अनन्त दर्शन व अनन्त ज्ञान की समस्त पर्यायों से युक्त आप ही स्फुरायमान मधुर रस से प्लावित हुए स्फुरायमान होते हैं । सामान्यविशेष या गुण-पर्यायों में सर्वथा भेद नहीं होता अपितु सापेक्ष दृष्टि भेदाभेद सिद्ध होता है हे जिन ! आपके सिद्धान्त में इसी प्रकार उपलब्धी होती है जो समीचीन व अबाध है ।। ६ ।।
एक अनेक नहीं होता है । अनेक भी इसी प्रकार एक नहीं होता । ऐसा द्वैतपना स्पष्ट व्यक्त है । निश्चय से क्या तुम इसे नहीं जानते? हम नहीं जानते ? जानते ही हैं भिन्न-भिन्न होते हैं । परन्तु स्यात्
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