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चतुर्विंशति स्तोत्र
अनन्त रत्नों से परिपूर्ण होता है उसी प्रकार आप अपने चैतन्यगुण की अनन्त स्वभाव पर्यायों से व्याकीर्ण हो रहे हो || १६ ||
हे जिन देव ! आपकी ज्ञान रूपी बीचियां (तरंगे ) उस शुद्ध ज्ञान स्वभाव को लिए हुए ही भीषण गर्जना करती हैं । इनके शुद्ध ज्ञान स्वभाव को नष्ट करने में कोई समर्थ नहीं हैं । यद्यपि विश्व का प्रतिबिम्ब वृद्धिहास पूर्वक इनमें गुण- पर्यायों सहित आकीर्ण रहता है तथाऽपि ज्ञानमात्र स्वभाव को मलिन करने में कंदाऽपि सक्षम नहीं होता । उन सम्पूर्ण पदार्थों को ये पूर्णतः स्पष्ट रूप से ज्ञात करती है तथाऽपि वे सतत सब ओर से अपने ज्ञान सामान्य को ही धारण करती हैं । यह ज्ञानधारा निरन्तर अविच्छिन्न प्रवाहित होती है ।। १७ ।।
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जिस प्रकार ज्ञानघन रूप से बाह्य संसार अन्य है, उसी प्रकार आपका ज्ञानघनकार संसार भिन्न है । घनाकार होने से दोनों समान नहीं हो सकते । ज्ञानाकार विश्व ज्ञान रूप से हो अवभासित होता है, निश्चय से वह अन्याकार धारण कर भी अन्य रूप नहीं हो जाता । जिस प्रकार मदन - मोमपिण्ड को सिंहरूप बना देने से उसमें निहित तो गया, परन्तु मधु उगलने वाला कमल नहीं हो सकता अथवा मधुमक्खी नहीं होता । क्या अन्याकार परणत वह अन्य ही है । क्या तदाकार होता है ? नहीं । इसी प्रकार से ज्ञानाकार लोक में बाह्य लोक प्रतिविम्ब रूप में अबकाश पाने मात्र से क्या ज्ञानालोक हो जायेगा ? कदाऽपि नहीं । अतः हे जिन! आपका ज्ञानालोक विश्वाकार परिणति से तद्रूप नहीं होता ।। १८ ।।
जितने ज्ञेय - मापने योग्य हैं उनको आप एक साथ माप लेते हैं । अर्थात सम्पूर्ण मेय एक साथ ही मित हो गये तो पुनः उनके मापने से
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