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चतुषिशति स्तोत्र
हे देव! संसार में शुभाशुभ कर्मों को जीव निरन्तर ग्रहण कर-कर के त्याग भी करता जाता है | अर्थात् पुण्य-पापक्रियाओं से शुभाशुभ कर्मों का ग्रहण और त्याग-यानि आम्रव और सविपाक निर्जरा की श्रृंखला तव तक चलती ही रहती है यह आवागमन कागद तक शंतमाण में इसस भिन्न भूत भेद-विज्ञान रूप ज्ञान ज्योति का जन्म-उदय नहीं होता है | इस विज्ञान घन ज्योति के प्रज्वलित होने पर ये सम्पूर्ण शुभाशुभ, भावकर्म व द्रव्यकर्म वान्त ही हो जाते हैं । पुनः उन बान्त हुए कर्मों का तथा भावों का ग्रहण नहीं होता है । अर्थात् ये निर्जरित हुए द्रव्य-भाव कर्म सतत् त्यक्त ही रहते हैं पुनः इनका कभी भी ग्रहण नहीं होता वह आपका अकाट्य सिद्धान्त है कि कारण के अभाव में कार्योत्पत्ति नहीं होती ।। २४ ।।
विश्व के असेष पदार्थों में नय विवक्षा से अनेक विरोधी धर्म एक साथ अविरोध रूप से स्थिति पाते हैं । यथा एकपना-अनेकपना, गुणरूपता व अगुण रूप, शून्यपना और पूर्ण अशून्यता, नित्य-अनित्य, विस्तार-संकोच, अनेकता व एकता, अंग-अङ्गगी भाव आदि विद्यमान रहते हैं । इसी प्रकार आत्मा और चेतना अङ्ग-अङ्गी भाव से समन्वित हुए संसार रङ्गमञ्च पर इन विविधताओं को सिद्ध करने वाले आपकी चैतन्य ज्योति में प्रकाशित अनेकान्त सिद्धान्त विषय करने में समर्थ हुआ शोभित हो रहा है । इन समस्त विरोधों को एकत्र अविरोधोघसिन्द्ध करने वाला, नय, निक्षेप, स्व चतुष्टय, परचतुष्टय आदि विभिन्न विवक्षाओं की अपेक्षा गौण-मुख्य दृष्टि से सिद्ध करता हुआ अनेकान्त सिद्धान्त सर्वत्र विलसित होता है ।। २५ ।।