Book Title: Chaturvinshati Stotra
Author(s): Mahavirkirti
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 274
________________ = चतुर्विशति स्तोत्र क्या प्रयोग होता है कुछ भी हो i |.र कि एक साथ मापने पर वह सीमित है परन्तु मापक रूप आपका ज्ञान दर्शन सीमित नहीं है । वह अखिल विश्व को अवलोकन कर और ज्ञात कर भी क्षीण नहीक्या प्रयोजन-फल होता है ? कुछ भी नहीं होता । सारा विश्च एक साथ मापने पर वह सीमित है परन्तु मापक रूप आपका ज्ञान दर्शन सीमित नहीं है । वह अखिल विश्व को अवलोकन कर और ज्ञात कर भी क्षीण नही होता क्योंकि आपका अनन्तवीर्य का व्यापार है कि दर्शन-ज्ञान स्वभाव को अनन्त-असीम और अच्युत बनाये रहे । यही कारण है कि सम्पूर्ण लोक अलोक का माप करके भी ज्यों का त्यों ही अवस्थित रहता है ।। अनन्त काल पर्यन्त इसी प्रकार अनन्त चतुष्ट्यधारी ही रहेगा || १९ ।। अनन्त पर्यायों से चित्र-विचित्र संसार आपके ज्ञानरूपी रस में मग्न हो तद्रूप से-ज्ञान ज्योति से प्रकट प्रकाशित हुआ भासमान होता है । परन्तु शब्द ब्रह्म स्वयं इसके प्रतिपादन में असमर्थ हुआ इसी ज्ञानोद्योत में लीन हो रहा है । अर्थात् सर्वज्ञ जितने ज्ञेयों को अपने ज्ञान का विषय बनाते हैं उसके अनन्तवें भाग मात्र को द्वादशांग वाणी को कथन करने की योग्यता है क्योंकि शब्द शक्तियाँ सीमित हैं अत: वे त्रस्त हो ज्ञान सागर में ही लीन हो जाती है । आपका ज्ञान तो नित्य उन्हें व्यक्त करने में संलग्न रह उस त्रैकाल वर्ती वैभव को एक समय मात्र में प्रकट करता ही रहता है । इस प्रकार व्यापार करता हुआ भी असीम रहती हुई आपकी भावात्मक ज्ञानज्योतिपुञ्ज रूप से ज्योतिमान ही रहता है । अर्थात् और भी अनन्त लोक हो तो उन्हें भी प्रकट ज्ञेय बनाने की सामर्थ्य बनी ही रहती है । इस प्रकार चारों अनुयोग आपके ज्ञान में समाहित हैं ।। २० ॥ हे देव! आपकी सर्वोत्कृष्ट प्रखर दृष्टि वेग से विश्व की सन्धियों में व्याप्त हो, गूढार्थ को सम्यक् ज्ञात कर उसमें प्रविष्ट हुई | परभावों के मर्म ज्ञात कर विद्युत समान वेग से चारों ओर से उन परभावों का १२७

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