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चतुर्विंशति स्तोत्र
फटकारते हुए, वह अपने शांत स्वभाव में प्रविष्ट हो स्थिर हुयी । यह ज्योति सर्वथा संसार से विमुख हो. अत्यन्त भिन्न हुयी सतत अपने स्वभाव में स्फुरायमान है तथा विशिष्ट रूप से उसी स्व रस के उपभोग में निमग्न हैं । न जाने यह कौन प्रकाश हैं जो त्रिकालवर्ती विश्वनीय पदार्थों का युगपत् ज्ञान करते हुए ज्ञानरूपी सूर्य का विकाश कर रही है । अर्थत् आप स्वयं ही ज्ञान प्रकाश हो । तथा उसी में तल्लीन हो उसका ही उपभोग करते हो || २१ ।।
सर्वत्र अप्रतिघाति महिमा, स्वयं अपने ही प्रकाश से विशिष्ट प्रकाशित होती हुयी, अन्य समस्त भावों को स्वरस में भस्मसात् करती हुपी अग्ने विस्तार में गिान है । इस स्वरस में अखिल विश्व आलम्बित है । तो भी बाहुल्यता से प्रकट है तो भी यह एक रूप से चमत्कृत होती हुयी असीम ही बनी रहती है । हे जिन! यह कौन सी आपकी ज्योतिर्मयी लक्ष्मी या शोभा है जो सर्वस्व को अपने में व्याप्त कर भी स्वयं अपने हो चैतन्य विलास में निमग्न रहती है । यह चैतन्यपुञ्ज स्वरूप आपका स्वभाव अपने आप में एक ही है । हम छद्मस्थों की दृष्टि से अगोचर है ।। २२ ।।
हे स्वामिन्! आपकी चिदाकार चिज्योति की अखण्ड प्रभा अपने ही स्वरस से परिपूर्ण भरित है । तथा अनन्त हैं । अतः प्रतिक्षण आपके अमूर्तीक, निर्विभाग स्वरूप को सुसज्जित करती हुई सतत प्रकाशित ही रहती है । सम्पूर्ण लोकालोक पर्यन्त सघन रूप से उग्रतेज द्वारा समस्त विश्व को प्रत्यक्ष करती हुयी उदीयमान प्रतिभासित रहती है । है स्वामिन् ! आपकी यह अनन्त ज्ञान-ज्योति अकेली - एकाकी स्फुरायमान रहती है! आप इसीसे एक होकर भी अनन्त स्व-पर भावों के ज्ञाता दृष्टा बने रहते हैं || २३ ||
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