Book Title: Chaturvinshati Stotra
Author(s): Mahavirkirti
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 272
________________ चतुर्विंशति स्तोत्र हो रहा है । यही एक ज्ञान स्वभाव से क्रीडा करता है । फलतः अब कर्मजन्यकर्तृत्व पना पुनः उदित नहीं हो सकता है । अगर कोई कर्तापना उदीयमान हो तो स्वयं स्व रस भरा केवल ज्ञान पुञ्ज रूप ही रहेगा । क्योंकि एक मात्र ज्ञान पुञ्ज में ज्ञान से भिन्न स्वभाव यहाँ क्या कर सकता है ? जब कि आप पूर्ण निशंक होकर एक मात्र स्व रसानुभव ज्ञान स्वरूप में ही विचरण कर रहे हैं । परम शुद्ध स्वभाव निजभाव ही रमण करते हैं || १४ ।। हे देव! आप वाह्य पदार्थों के स्पर्श से सदैव विमुख रहते हैं । उनका तनिक भी आलम्बन नहीं लेते हैं । तथाऽपि संसार के समस्त पदार्थ अपनी अशेष गुण पर्यायों के साथ एक साथ आपकी परम ज्योति स्वरूप का आलम्बन लेकर उस आत्म स्वभाव में उत्कीर्ण होते रहते हैं । अर्थात् ज्ञानधन स्वभाव के प्रकाश में झलकते रहते हैं । है. भगवन्! आप तो जगी आत्मा का ही आलम्बन त हा आत्मस्वरूप में ही प्रकाशित होते हो । निश्चय से स्व स्वभावनिष्ठ, हो । व्यवहार से सम्पूर्ण विश्व समाया हुआ है । तो भी आत्मा ही अपने प्रकाशपुञ्ज के साथ जाञ्चल्यमान रहती है | अर्थात् पर पदार्थ निर्मलज्ञानाभा प्रतिविम्बित हुए कुछ भी मलिनता उत्पन्न नहीं कर सकते ।। १५ ॥ यस्मिन् जिसके अन्दर त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थ अपनी अनन्त पर्यायों के साथ एक ही समय में युगपत् प्रकाशित होते हैं । नथा जिसकी आनन्दरस रूपी तरंगें विश्व की सीमा का भी उलंघन करने वाली हैं । अति वेग से प्रवाहित लहरें सीमातीत उठ रही हैं । इस प्रकार आप अपने स्वच्छ, कर्ममल रहित दिव्य सागर को निज के पूर्ण भावों में भरते हुए - पुष्ट करते हुए, भावाभावों से स्वचित महिमायुक्त पूर्ण ज्ञानरूपी रत्नाकर हो | अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सागर अमूल्य ११५

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