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. चतुर्विशति स्तोत्र
पाठ-२२ वाँ अनन्त द्रव्य व पर्यायों से खचित विश्व को प्रत्यक्ष करने के लिए अनिच्छा से बाह्यपदार्थों के स्पर्श करने पर भी उन ज्ञेयों से विमुख हुआ आपकं क्षाायेक ज्ञान को किरणे निष्कम्प ज्योतिमयी प्रवर्तन करती हैं । अर्थात् अनन्तं गुण-पर्यायों को आपका क्षायिकज्ञान रवि अपना विषय तो बनाता है, पर उनका स्पर्श नहीं करता, अपितु उनसे विमुख ही रहता है । इसी प्रकार अनन्त दर्शन भी स्वयं में अतिशयलीन हुआ उसी में लीन रहता है । निज स्वभाव में ही निमग्न हुआ उसे ही देखता है । हे स्वामिन्! अहेत! अशेष विश्व को युगपत् जानता हुआ भी उसका स्पर्श भी नहीं करता, अपितु उनसे विमुख हो अपने ही स्वरूप अचल रूप रह उसको ही अपने ज्ञान का विषय बना प्रवर्तते हो । तथा इसी प्रकार आपका अनन्तदर्शन भी आध्यास्य दृष्टि आत्म स्वरूप में लीन हुआ रहता है । स्वामिन्! इसका क्या कारण है । आपमें कौन सी परमानन्द रस धारा प्रवाहित होती है, जिससे कि स्वयं अपने ही स्वरूप के ज्ञाता दृष्टा बने रहते हैं ।। यह विशेष रहस्य समझ में नहीं आता है || १ ||
यद्यपि मेरी बुद्धि आपके गुण वर्णन में अक्षम है-असमर्थ है, तो भी कुछ वर्णन करता हूँ | क्या दाहक से दाह्यरूप ईंधन भिन्न है, जो ईंधन में व्याप्त कर रहती है । परन्तु देखा जाता है जलने वाला ईंधन अग्नि रूप नहीं है । निष्कर्ष यही होगा अग्नि अग्नि है और ईंधन-ईंधन है | अग्नि ईंधन नहीं और ईंधन अग्नि नहीं, परन्तु तो भी दाह्य दाहक रूप प्रवृत्त होते हैं । इसी प्रकार आपके ज्ञान से ज्ञेयरूप विश्व भिन्न है
और आपका ज्ञान भिन्न है । तथाऽपि अशेष ज्ञेयों को अपने में व्याप्त कर प्रवृत्ति करता है । हे ईश! आप तो आप ही हो अर्थात् आपका ज्ञान