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चतुर्विंशतिस्तोत्र
क्रियाकारित्व के अभाव में वह भी अभावरूप ही होगा । अतः मुख्य- गौण • रूप से ही अपोह सिद्ध है || १८ ||
हे जिनेश्वर आपके सिद्धान्त में परस्पर अपने से ही किसी एक को पररूप कथन कर उस पर के द्वारा अन्य में विभावता को उत्पन्न करते हैं । अर्थात् सामान्य का अपोह कर विशेषों का और विशेषों का अपोह होने पर सामान्य का स्वरूप विवक्षित होता है अन्य का गौण हो जाता है । यहीं अर्थ व्यवस्था सिद्ध होती है । तुम यदि एकान्त से एक का ही क्षय (अपोह) होता हुआ उसे प्रवृत्त मानते हो तो सर्वत्र दुर्व्यवस्था होगी । हे प्रभो सभी पोहरूप से (सद्भाव से ) ही प्रतिभासित होते हैं, यहीं आपका कथन सत्य हैं ।। १९ ।।
आपके यदि अपोहता के द्वारा जगतत्रय को कहा जाय, तो तीनों लोक ही गत अभाव रूप हों, तब आप भी स्वयं अभाव रूप हो जायें । ऐसा होने पर सौगत के मतानुसार आपका मत होगा तो फिर आपका ही अभाव ठहरेगा । किन्तु आप तो प्रत्यक्ष उपदेष्टा उपस्थिति लिए प्रतिभासित हो रहे हैं । अतः एकान्त अपोह यथार्थ नहीं । पदार्थों में अन्योन्याभाव मानना ही उचित है । यह सामान्य विशेषरूपता में ही संभव है । सर्वथा एकान्त में नहीं ॥ २० ॥
अपोहवाद से समस्त सब ओर अन्तस्तत्व व वाह्यतत्त्वों की सत्ता समाप्त हो जायेगी । क्योंकि निल्लव शक्ति निरंकुश, स्वच्छंद प्रवृत्ति करेगी । ऐसा होने पर कुछ भी अस्ति रूप नहीं रहेगा । क्योंकि वह सर्व को शून्यता में ही प्रवेश करायेगी । परन्तु ज्ञान तो यहाँ प्रतिभासित होता हैं ।। २१ ।।
यह विसंगति उछलती हुयी बलात् सत् के साथ दुःखद शून्यवाद की ही कल्पना का विघात करती है । क्योंकि अशेष विश्व के अभाव होने पर सर्वत्र कहाँ, क्या, कितना, किसके द्वारा कहाँ पर किस प्रकार, कैसे,
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