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चतुर्विशति स्तोत्र
पर्यायार्थिकनयापेक्षा संसारावस्था में नानारूपता धारण करता हुआ पदार्थ भासता है, परन्तु वही तत्त्व द्रव्यार्थिक नय से एक रूप ही अवभासित होता है । हे ईश आपने उपदिष्ट किया है कि सत् अपेक्षा से द्रव्यनय की दृष्टि जल एक रूप ही है | परन्तु पर्यायापेक्षा भिन्न-भिन्न घटों में भरा हुआ अनेक भेदरूप दृष्टिगत होता है । यही जलधारण क्रिया का प्रयोग है । इसी प्रकार छद्मस्थ दशा में ज्ञान नाना पर्यायों व्यक्तियों में अनेक रूप से प्रतिभासित होता है अर्थात् व्यक्ति नाना पर्यायों में भेद रूप है, परन्तु वही क्षायिक होने पर एक अखण्ड नित्य प्रतीत होने लगता है ।। १२ ।।
यदि नाना घट गत जल नानारूप नहीं स्वीकृत किया जायेगा तो वाह्य पदार्थों की सिद्धि किस प्रकार होगी ? नहीं हो सकेगी । परन्तु आपका सिद्धान्त उनकी सिद्धि करता है । हे ईश ! आपमें कुम्भगत नीर की भांति ज्ञान भेद रूप था वही एकरूप में पूर्णता को प्राप्त हो एक रूप हो गया । इसी अपेक्षा को सिद्ध करती है बाह्य पदार्थों की अनेकता । यह एकानेक अवस्था स्वभाव से वस्तु में निष्ठ है । जिसकी अभिव्यक्ति आपका स्यात् चिन्ह चिन्हित स्याद्वाद ही करने में समर्थ है, अन्य एकान्तवाद नहीं || १३ ।।
इसमें ज्ञानाद्वैत सिद्धान्त का खण्डन करते जिन स्तवन आचार्य श्री करते हैं । हे जिन ! आपके सिद्धान्त में भी यदि एकान्त रूप सकल पदार्थ ज्ञान स्वरूप ही हैं ऐसा माना जावेगा तो सर्वत्र जड़ता का अभाव ही हो जायेगा | जो प्रत्यक्ष विरुद्ध है । अतः आपने इस मान्यता के विरुद्ध सत्य तथ्य उपदिष्ट किया कि पदार्थों के नाना प्रकार भेद नहीं होंगे । क्योंकि एकान्त अभिन्नरूपता स्वीकार किये पृथक्-पृथक् भेद किस प्रकार होंगे ? नानापना स्पष्ट देखा जा रहा है । अतः जड़, चेतनात्मक पदार्थ भिन्न-भिन्न सिद्ध हैं ।। १४ ॥
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