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चतुर्विशति स्तोत्र
हे ईश ! आपने अपने विज्ञानधनस्वरूपी रवि प्रकाश द्वारा सम्पूर्ण विशेषताओं को स्पष्टता से प्रकट किया । यही तो तत्वसिद्धि की सम्पदा है । यह अनेकरूपता सर्वत्र अभिव्याप्य हो के साथ-साथ अपने बल से प्रवृत्त हो पदार्थ की एकरूपता को छुपा देती है |अभिप्राय यह है जिस समय विशेष भेदरूप व्यवहार नय को प्रयोग किया जाता है तो अभेद सामान्य धर्म गौण हो जाता है और विशेष मुख्य रहता है 11 १५ ।।
हे प्रभो ! आपके सिद्धान्तानुसार यह वही स्वरूप है, इस प्रकार पदार्थ की प्रतीति होती है, वह पर (विशेष) को अपने में अन्तीन कर ही लेती है । पर का स्वरूप उस समय भी वही रहता है जैसा पा है । यह स्वयं उसी के अपोह-निलव द्वारा प्रकाशित होता है । अर्थात् सत् (सामान्य) की मुख्यता में विशेष दृष्टि गौण हो जाती है ।। १६ ॥
हे प्रभो ! इस प्रकार यह अभाव ही परस्पर आश्रय को अवश्य प्राप्त करता हुआ स्व और पर स्वरूपता सिद्ध करता है । सत्ता सद्भाव से असत्ता सद्भाव से सत्ता गौण हो जाती हैं । असत्ता मुख्य । असत्ता में सत्ता मुख्य होती है । विशेषों में स्वयं भव-सत्ता पना के सद्भाव भी आपके ज्ञान गोचर होता है | अतः मुख्य-गौण विवक्षा में उभयता सिद्ध है ॥ १७ ॥
एकान्तिक अपोहवाद स्वीकार करने पर यह निरन्तर विचारज्ञों को आपत्ति या दुर्घटना ही पैदा करने वाला होगा । क्योंकि अन्य का विनाश करता बना रहेगा तो अपोह स्वयं भी अभाव रूप हो जायेगा इस भ्रम बुद्धि का विनाशक आपके सिद्धान्त में अपोह अनादि सन्तन्ति से चला आया प्रवृत्त होता है । अतः गौण-मुख्य व्यवस्था से अपोह एक दूसरे में भेद सिद्ध करता हुआ ही समस्त विज्ञजन स्वीकार करते हैं । क्योंकि सर्वस्व सर्वथा अपोहरूप होंगे तो रहेगा क्या ? फिर अपोह भी किस प्रकार प्रवृत्ति कर सकेगा ?