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चतुविशति स्तोत्र
तन्मयता होकर 'द्रव्य' होता है 1 भिन्न-भिन्न होकर नहीं । इसी प्रकार गुण या विशेष भी अपने विशेष्य या द्रव्य से तन्मय होकर ही 'द्रव्य' संज्ञा अर्पण करते हैं | द्रव्य में वैशिष्ट दर्शाते हैं । हे देव ! वस्तु तत्त्व इसी प्रकार का है, नैयायिकों की भांति गुण-गुणी में सर्वथा भेद नहीं होता क्योंकि इसका साधक कोई प्रमाण नहीं । अतः आप द्वारा प्रतिवादित ही पथार्थ वस्तु स्वरूप है ।। १५ ।।
एक ही काल में सामान्य व विशेष से परिपूर्ण ही द्रव्य द्रव्यत्व पने को प्राप्त होता है । अर्थात् वस्तु में वस्तुत्व धर्म सिद्ध होता है । नैयायिक सिद्धान्त गुण को तथा गुणी को सर्वथा भिन्न मानकर संयोग सम्बन्ध स्वीकार करता है, परन्तु यह प्रत्यक्ष बाधित है क्योंकि ऐसा मानने पर सर्वसंकर दोष उत्पन्न होगा या अव्यवस्था होगी चेतन जड़ और जड़ चेतन हो जाने का प्रसंग आयेगा ।क्योंकि आपने हे देव उपदिष्ट किया कि द्रव्य में रहते हुए ही विशेषगुण उसमें विशिष्टता अर्पण करते हैं । सर्वथा भेद मानने पर वे उसी में लय को प्राप्त होंगे || १६ ।।
हे प्रभो आपके सिद्धान्त में सामान्य अपनी निज पर्यायों से सर्वथा भिन्न होकर प्रतिभासित नहीं होता । अपितु अपनी पर्यायों में स्थिति कर ही विशेषता को प्राप्त करता है । इस प्रकार कथंचित् भेदाभेद लिए ही विशेष विशेष्य सम्बन्ध सिद्ध होता है । क्योंकि सर्वथा भिन्न होने पर कौन किसका विशेषण है और कौन किसका विशेष्य यह व्यवस्था व्यवस्थित नहीं होगी ।। १७ ।।
आपके सिद्धान्तानुसार सत् प्रत्यय सम्पूर्ण सामान्य अपने विशेषों को एक साथ अपने में समाहित कर सम्पूर्ण द्रव्य तन्मयता के साथ ही प्रकट प्रतिभासित होता है । ये प्रत्यय-स्वभाव-स्वभावी तो आपके मत में तन्मयता