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चतुर्विंशतिस्तोत्र
से भी एक साथ भरा पूर्ण रहता है । पर्याय और पर्यायों में एकान्त से सर्वथा भेद नहीं होता ॥ २२ ॥
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हे प्रभो ! सम्पूर्ण पदार्थ का जो अभाव स्फुरित होता है, वह समस्तपने से स्थिति सद्भाव को लिए हुए ही होता है क्योंकि सद्भाव और अभाव परस्पराश्रय से ही सिद्ध हैं। एकान्त रूप से यदि सर्वथा अभाव व सद्भाव माना जायेगा तो महान दुर्व्यवस्था खड़ी हो जायेगी । क्योंकि एक रूप संवित्ति हे ईश शून्यता को प्राप्त होगी । क्यों आश्रय के अभाव से आश्रयी का अभाव होगा, तो आश्रयी के नष्ट होने पर आश्रय भी अवश्य अभावरूप सिद्ध होगा 1 अतः अंश अंशी में एकान्त तन्मयता व अतन्मयता नही है, किन्तु कथंचित् पने से है ।। २३ ।।
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वस्तु सद्भाव ही वस्तु में वस्तुपने का ज्ञान कराता हैं । अविशेषों की अपेक्षा उसी प्रकार अभाव भी ज्ञात कराता है । अभिप्राय यह है कि द्रव्यार्थिक नय पदार्थ में सद्भाव का ज्ञापक है और पर्याय नव अपनी अपेक्षा उसी सत् रूप वस्तु में ही अभावरूपता प्रतिभासित करता है । दोनों प्रकार की स्थिति को मुख्य गौण विवक्षा से सिद्ध करती हुयी ही ज्ञानज्योति विरोधी धर्मों को भी एक साथ रखने की सामर्थ्य से जीवित ज्योतिर्मय रहने की क्षमता सम्पन्न है || २४ |
अगर अंश - अंशी को सर्वथा भिन्न स्वीकृत किया तो महाकष्ट रूप स्थिति उत्पन्न होगी । यह सिद्धान्तं तो मुझे मात्र भस्म ही प्राप्त करायेगी 1 अर्थात् आचार्य देव यहाँ भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे प्रभो इस एकान्त ध्वान्त से मेरी रक्षा करिये । आप ही के प्रसाद संसार स्वरूप के प्रलय से रक्षणार्थ आप ही अपनी अनन्त शक्तियों के साथ मेरे अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर हे प्रभो ! मेरी भी अनन्तशक्तियाँ ही प्रकट हो यही आकांक्षा है । अर्थात् आपकी अनन्त ज्ञान ज्योति से मेरी भी आत्मज्योति अनन्तकाल तक स्थिर रहने वाली प्रज्वलित होवे ॥ २५ ॥
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