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चतुर्विशति स्तोत्र
पाठ २१ "वंशस्थछन्द"
ज्ञान स्वभाव यदि मूल से अर्थात् प्रारम्भ से ही शुद्ध है, एवं असीम है तो निरन्तर उत्तरोत्तर विकासोन्मुख हो रहा है यह किस प्रकार होता । क्रमशः मोह का नाश होता हुआ ही अनन्तरूप वाला हे प्रभो ! आपके अनन्त क्षायिक ज्ञान का विषय होता है । इस प्रकार तत्त्व का मूल स्पष्ट रूप से स्फुरायमान होता है । मोह युक्त होने से अनादि शुद्ध न होकर पदार्थ क्रमशः पुरुषार्थ द्वारा शुद्ध किये जाते हैं । यथा सुवर्णादि धातुएँ ।। १ ।।
यदि स्वयं पदार्थ निहित विशेष अन्त को प्राप्त नहीं होंगे तो, यह जो आपने प्रारम्भ में सामान्य धर्म प्रतिपादित किया वह सिद्ध नहीं हो सकेगा । परन्तु प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं विशेष और सामान्य स्वभाव | आपके सिद्धान्त से विशेष यानी पर्यायें द्रव्य में अनन्तरूप से वेग के साथ परिणमित हो रही हैं । अतः परिणमन स्वभाव पदार्थों में स्वयं प्रारम्भ से ही प्रसिद्ध-सिद्ध है | अत: सामान्य विशेष दोनों ही युगपद वस्तु में निविष्ठ रहते ही हैं |॥ २ ॥
आपका सिद्धान्त अखण्ड, एकरूपता धारण करता हुआ द्रव्य एकरूप रहता है और पर्यायों (विशेषों) की अपेक्षा अनेकरूप धारण करता है । अभिप्राय यह है कि सामान्य धर्म की अपेक्षा तत्त्व एकरूपता को प्राप्त होता है और विशेष पर्यायों की उसी समय अनेक रूपता भी लिए रहता है । हे देव ! आप ही द्रव्य-पर्याय दृष्टियों से सम्यक् प्रकार तुष्-मलिनता, कर्ममलीमषरूप त्याग, कर्ममलरूप घातिया कर्मों का संहार कर परम शुद्ध रूप प्रतिभासित होते हो ।। ३ ।।
हे परमेश्वर ! यदि आप एकान्तरूप से एकरूपत्व प्राप्त होते तो समस्त विशेष नहीं रहते । अर्थात् नष्ट हो जाते । तब तो आप विशेषों से रहित हुए विशेष्य रूप आपका ही अभाव हो जाता | क्योंकि विशेष और