________________
चतुर्विंशति स्तोत्र
विशेष्य में अविनाभाव सम्बन्ध है | अतः एक के अभाव होने पर अन्य का भी अभाव सुनिश्चित है । अतः पर्यायों के अभाव होने पर द्रव्यरूप आपका भी अभाव हो जाता जो असंभव है । अतः सुनिश्चित हैं कि वस्तु स्वभाव उभय धर्मात्मक है ॥ ४ ॥
यदि एकान्त रूप से सामान्य विशेष धर्म को एकरूप माना जायेगा तो प्रभो ! आप ही स्वयं विशेष्य और आप ही विशेष रूप होंगे । अर्थात् विशेष और विशेष्य का भेद ही लुप्त हो जायेगा । तब तो आप विशेष्यरूप से प्रतिभासित नहीं हो सकते । तब भिन्न-भिन्न रूप विशेषों का आश्रय नहीं होने से भेद लोप हो जायेगा | क्योंकि पर्यायी के बिना पर्यायें किसके आश्रित रहेंगी ? उनका भी लोप होगा || ५ ||
हे विभो ! विशेष के पृथक् रहने पर ही आपका वित को प्राप्त होगा । अन्यथा विशेषों के सामान्यरूपता भी एकाकार हो अविशेषता ही न टिकेगी । अर्थात् ये विशेषण हैं और ये नहीं, इस प्रकार का कथन संभव नहीं होने से तत्त्व व्यवस्था यथार्थ नहीं होगी । हे देव ! आपका सिद्धान्त स्पष्ट करता है कि विशेष्य विशेषणों के साथ अवश्य रहता है, परन्तु एकमेक होकर नहीं | उनमें कथंचित् अभिन्नता के साथ कथचित् भिन्नता भी परिलक्षित रहती है || ६ ||
पदार्थ के साथ सामान्य विशेष एक दूसरे का सर्वथा अभाव कर वृत्ति प्रकाशित नहीं होती । क्योंकि क्रमरूपता के अभाव में यह वृत्तिश्रृंखला सर्वथा भिन्नों में यह इसकी पर्याय हैं. इस प्रकार की सम्बन्ध परम्परा नहीं बन सकेगी 1 अतः वह वृत्ति यौगिक श्रृंखला नित्य क्षणिकत्व और नित्यत्व बिना कथंचित् सिद्धान्त को ही ग्रहण कर महान तेजोमय होकर पदार्थ स्थिति, को स्थित करता है | कालभेद से परिणमित पर्यायें पदार्थ की क्रियाकारित्व शक्ति को निर्धारित करती हैं ॥ ७ ॥
१८३