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= चतुर्विंशति स्तोत्र सर्वथा एक दूसरे घातक कोई नय दृष्टिगत नहीं होता | उस समय ऋजुसूत्र तत्त्वांशों का भिन्न-भिन्न रूप से अनन्तज्ञान तत्त्व के अनन्त अंशों को बिखेर कर वर्णन करता है । इस प्रकार सञ्चयदृष्टि छिप जाती है । मात्र भेददृष्टि ही उद्घाटित रहती है । समस्त वस्तु अंशों का पृथक्-पृथक् स्वरूप वर्णन करती है ॥ ४ ॥
उपर्युक्त प्रकार को भेददृष्टि अर्थात् प्रदेश मात्र ग्राही कजुसूत्र नय की दृष्टि सहसा-अतिशीघ्र चैतन्य कणों को पृथक् पृथक् करने वाला नय पूर्वापर भेद को संघटित करने में सक्षम नहीं होता | क्योंकि इसकी दृष्टि अपने ही अंशासों तक सीमित रहती है । यद्यपि वह संग्रहनय दृष्टि भी अनादि संतति रूप से तत्त्वांशों में व्याप्त हैं । तथाऽपि कभी भी परस्पर एकरूपता को प्राप्त नहीं होती । दोनों नय परस्पर विरोधी न होकर भी स्वतंत्र रूप से अपने अपने ही विषय के ग्राहक होते हैं ।। ५ ॥
अखण्डपिण्ड-निरन्वय रूप सामान्य दृष्टि द्वारा, वह चैतन्य की चित् कलाएँ (अंश) विद्युतवत् क्षण-क्षण क्षीण होती जाती हैं । हे जिन ! आपकी नैरात्म्य दृष्टि से बलात् यह बात स्पष्ट होती है । उस क्षण आपका सिद्धान्त उन्हीं को अपने निर्मलज्ञान से झलकाते हैं ॥ ६ ॥
हे प्रभो ! आपने उपदिष्ट किया है कि सत् क्षणध्वंशी नहीं है । पर्याय नाशवान हैं ! क्योंकि सत् नश्वर मानने पर वह तत्काल नाश को प्राप्त हो जायेगा, फिर 'यह पहले था, यही अब है और भी होगा' यह सिद्धान्त नहीं बनेगा | यही सत्ता की अर्थक्रिया है जो प्रत्यक्ष युक्ति युक्त है । वर्तमान में प्रवर्तन करती हुयी पर्याय क्षण-क्षण प्रत्यक्ष होती दृष्टिगत होती हैं । ये ही ऋजुसूत्र नय की विषय हैं ।। ७ ।।
क्षण क्षय स्थिति में नाना भेद रूपों में कार्यकाल में ही रहेगा, कारण समय में नहीं रहेगा | तथाऽपि हे जिन आपके सिद्धान्त में तो पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती चैतन्य विशेषों में बलात् कारणकार्यपनास्थित होता ही है । अतः