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चतुर्विंशति स्तोत्र
स्वाभाविक स्वानुभूति रचानुभूति द्वारा सदैव अत्यन्त स्पष्ट रूप से दैदीप्यमान होता है | चेतना से भिन्नभूत पुद्गल के साथ मिलकर इससे भिन्न हो अपने स्वरूप से अत्यन्त भिन्न सा उदय होता है । संयोग का यही स्वभाव है कि वह स्वयं के साथ संयोगी को भी विलक्षण कर देता है । दो स्वतंत्र पदार्थों का मिश्रण संयोग सम्बन्ध कहलाता है । यह संयोगी दशा दोनों ही पदार्थों के शुद्ध स्वरूप को तिरोहित कर अन्य ही विलक्षण स्वरूप प्रकट करता है । जड़-चेतन का संयोगी रूप भी दोनों स्वभावों से एक विलक्षण ही स्वभाव से अवभासित होता है ॥ ५ ॥
अपने स्वभाव से भरित पदार्थ सदैव सर्व प्रकार से अपने ही भावों से अवस्थित रहता है। ये ही निज स्वभाव भाव ही परभावों से मिश्रित हो अखण्ड एकरूपता धारण कर उसी प्रकार मिश्रित रूप स्पष्ट प्रतिभासित हो दृष्टिगत केले हैं ॥ ६ ॥
चैतन्यरूप अनन्त विशेषणों से विशिष्ट हुआ आत्मा एक साथ युगपद एक रूपता से ही प्रतिभासित होता है । जिस समय एक चैतन्यभाव से प्रतिभासित होता है तो एक निज भाव ही ज्ञान दर्शन रूप से चमत्कृत होता है || ७ ||
हे प्रभो ! आप उत्तरोत्तर विकासोन्मुख होते हुए भी यह है, यह है इस प्रत्यय से अभिन्नता लिए प्रतीत होते हो । एक ही द्रव्य होते हुए भी यह पूर्व - पहली पर्याय है और यह उत्तर रूप है । इस प्रकार पूर्वापर भाव से भिन्नत्व भी प्रतिभाषित होता है । यही उत्पाद - व्यय धर्म धौव्यता को लिए ही संभावित हैं । अतएव तत्त्व उत्पाद व्यय और धौच्य से युक्त ही होता है ॥ ८ ॥
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