________________
चतुर्विंशतिस्तोत्र
अनेकात्मक रूप से शोभित होती है । हे प्रभो आपका सिद्धान्त सर्वथा अबाधित है ||१३||
हे प्रभों आपका सिद्धान्त विधि और निबन्ध स्वभाव का कभी भी उल्लंघन नहीं करता क्योकिं पदार्थ का स्वभाव ही विधि प्रतिषेध रूप है । स्वभाव स्वभाव से कभी च्युत होता नहीं है । समान्य विशेषात्मक वस्तु का लक्षण है । स्वभाव या धर्म अपनी सीमा का उल्लघन नहीं कर सकता । अभिप्राय यह है कि वस्तु स्व चतुष्टय-द्रव्य-क्षेत्र-काल- भावापेक्षा विधिरूप अस्तिरूप हैं । तथा परद्रव्य-क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से निषेध-प्रतिषेध रूप हैं । ये दोनों ही धर्म एक कालावनिच्छन्न रहकर ही वस्तु के अस्तित्व को रक्षित रखते हैं । हे भगवन् ! आप ही एक मात्र हैं जो कृष्ण व शुक्ल के समान कभी भी वस्तु की द्विविधता को निषिद्ध नहीं करते । अर्थात् अमुक कृष्णपक्ष है, तो यह स्वयं सिद्ध हो जाता है शुक्ल पक्ष नहीं हैं । यह शुक्ल हैं कथन करते है कृष्ण नहीं है यह अनायास ध्वनित हो जाता है । इसी प्रकार 'शुद्धात्मा हैं उच्चारण करने पर अशुद्धता का इसमें निषेध स्वयं सिद्ध हो जाता है अतः आपका विधि-निषेधात्मक वस्तु स्वभाव अकाट्य. अविरोधी और त्रिकाल सत्य रूप हैं । निः सन्देह आपके सिवाय अन्य एकान्तवादियों के तत्त्व व्यवस्था है ही नहीं | १४ ।।
पदार्थों में भवनस्वभाव अर्थात् परिणमन स्वभाव उनके अस्तित्व का द्योतन करता है । इसी प्रकार भवन क्रिया ही अस्तित्व धर्म का प्रकाशन करती है । एकान्त नित्य सिद्धान्त में क्रियोत्पत्ति का अभाव होने से वस्तु काही अभाव सिद्ध होता है । अर्थात् एकान्त क्षणिक व कूटस्थनित्य पने में पदार्थ की स्थिति नहीं बनती । अतः हे भगवन् ! आपने अस्ति और नास्ति दोनों धर्मों के समुदाय रूप से वस्तु तत्त्व निरूपण कर हमें यथार्थ मार्ग दर्शन कर वस्तु स्वरूप प्रकाशित किया है । यह विरोध सादृष्टिगत होता हुआ भी विस्मयोत्पादक नहीं है । अपितु पदार्थ की समीचीनता प्रकट करता है ।