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चतुर्विंशतिस्तोत्र
उपर्युक्त विधि से कुछ भी आपका अवग्राही ग्रहण करने योग्य नहीं है । आप तो अपने ही स्वभाव के ग्राहक हो । जिस तत्त्व को आप धारण किये हुए हो वह ज्ञाता, दृष्टा स्वभाव ही आपके लिए ग्रहण करने योग्य है । अर्थात् आप निज स्वभाव के ही ग्रहण करने वाले दो अन्य किसी के नहीं, यही परमार्थ सिद्धान्त है || २३ ||
आत्मोपयोग शुद्धावस्था में अत्यन्त तीक्ष्ण, निराकुल और प्रगाढ़ रूप से अवभासित होता है। अनन्तशक्ति द्वारा निराबाध होता है. अव्याबाध होने से अति व्यापक - विराटरूप धारण करता है। उसी पूर्ण विकास को लिए सतत निरन्तर प्रत्यक्ष पूर्ण प्रकट रहता है । अर्थात् अनन्त प्रकाशरूप अविरल धारा में धोतित रहता है ।। २४ ।।
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इस विवेचना से यह सिद्धान्त निष्पन्न होता है कि आप अपने स्वभाव भाव में व्याप्त होकर भी व्यवहारनवापेक्षा अनेक रूप भी होते हो। इस प्रकार यह उपयोगरूप अखण्ड अनन्त प्रदीप की अग्नि को ग्रसित करने वाली वर्तिका नित्य ही प्रकाशित रहती है, इसमें कोई सन्देह नहीं है | अभिप्राय यह है कि आत्मतत्त्व अनादि अनन्त है उसका स्वभावरूप उपयोग भी पूर्णता को प्राप्त कर अपने ही स्वभाव में अनाद्यनन्त हो वर्तन करता है । अर्थात् स्व पर प्रकाशक ज्योति युक्त रहता है || २५ ||
हे जिनेश्वर ! आप ऐसे ही अलौकिक प्रदीप हो ।
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