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चतुर्विशति स्तोत्र क्यों कि अवयवी एक है और अवयव अनेक हैं । परन्तु अववव अवयवी से भिन्न स्वरूप नहीं होते । समुदाय रूप से एकपने से ही प्रतिभासित होते हैं । अतः एकान्त पने से अवयवी और अवयवों में भेद नहीं पाया जाता ।। ५ ।।
भगवा आपके सिद्धान्त में पयायों की अपेक्षा चैतन्य अनेकरूप है । यह भेद दृष्टि या व्यवहार दृष्टि है । परन्तु निश्चयनयापेक्षा सम्पूर्ण चित् शक्तियाँ एक रूप से उपयोगमयी ही सिद्ध होती हैं | यह सनातन सिद्धान्त है । क्योंकि जलकल्लोलवत् पर्यायों की अपेक्षा चिन्तमयशक्तियाँ अनेकरूप से उछलती हुयी भी अपने स्व स्वभाव को ही लिए रहती हैं | अपने ही रस से सिक्त होती है । अनेकान्त दृष्टि से यही स मीचीन स्वरूप हैं || ६ ||
जो स्वभाव उदीयमान था वही उदित होता है और हे विभो । परमात्म-रूप में वही उदय को प्राप्त होगा । यद्यपि वर्तमान में-छद्मस्थ दशा में कलिकाल के प्रभाव से कर्माच्छन्न सम्यक्ज्ञान मिथ्याज्ञान रूप से परिणमन कर रहा है । तो भी सम्यक्त्व ज्योति प्रकाशित होते ही यह कलुषित बोध सागर रूप चित् स्वभाव निष्कलंक हो क्षायिक रूप से ही लहरायेगा | परभाव जन्य कालिमा क्षणिक होती है वह स्वभाव को भले ही विकृत कर परन्तु नष्ट नहीं कर सकती । सत्पुरुषार्थ उसे ही विनष्ट कर देता है || ७ ||
हे प्रभो! आप शुद्ध चैतन्यस्वरूप भरित हो । अतः निरन्तर एक रूप ही शोभायमान रहते हो । मेरा चैतन्य कर्म कालिमा से मलिन है. पृथक् नहीं हो रहा है । पानी के ओले के समान-जलकण जिस प्रकार गलते रहते हैं और पुनः वही जलधारा ओलारूप धारण करती हैं परन्तु अपने द्रवणरूप जलव स्वभाव का परित्याग नहीं करती, उसी प्रकार आयुकर्म के निषेकों से प्रतिक्षण वर्तमान पर्याय झीण होती जाती है और अन्त में अन्यपर्याय घटित होती है । इस प्रकार नाश और अविनाश बनता है । अर्थात् पर्याय परिवर्तित होने पर भी आत्म तत्त्व अपने निज चेतन स्वभाव का परित्याग नहीं करती ।। ८ ।।