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चतुर्विशति स्तोत्र या धर्म-अर्थात् सामान्य-विशेष धर्म एक साथ रहकर ही वस्तु धर्म के स्वरूप को अवस्थित रखते हैं । इसी कारण आपका शुद्धात्मतत्त्व, प्रकट होकर एक रूप में ही रहता हैं || १३ ||
__अनन्तधर्मात्मक आत्मतत्त्व अपने अनन्तगुणचक्रसहित एक साथ उदय प्राप्त करते हैं । कारण एक पदार्थ में निविष्ट अनन्त शक्तियाँ एक रूप होकर अनन्यभाव से रहती हैं । समुदायरूप से ही ज्ञान में प्रतीत होती हैं । इसी रूप से आप अपने आत्मतत्त्व को अनुभव करते हैं । इसी प्रकार एकत्व और अनेकत्य युगपत् स्वभाव से ही निहित आपने सिद्ध किया है । यही वस्तु स्वरूप है ।। १४ ॥
पर्याय नयापेक्षा आपकी अनन्त शक्ति का क्रमिक रूप से ह्रास होता है तो वह धारा असीमरूप से उत्तरोत्तर हानिरूप होती है । तथाऽपि उसी समय द्रव्यार्थिक नयापेक्षा आत्मा का वैभव स्पष्ट वृद्धिंगत होकर भी उसी रूप अनन्त ही रहता है । द्रव्य, पर्याय से वृद्धि हानि होने पर भी शुद्ध आत्म तत्त्व यथा तथा ही रहता है ।। १५ ।
प्रतिसमय आत्मा का वैभव अपने स्वभावरूप से निरन्तर उल्लसित होता रहता है । यह परिणति स्व-पर निमित्तों वशात् अनन्तभावों के द्वारा होती है | आपकी स्वभावशक्ति के परिणमन द्वारा स्फुरित होती है । इस परिणमित ज्ञानदर्पण में अनन्त पदार्थ भी परिणमित होते हुए प्रकाशमान होते रहते हैं || १६ ।।
यह आत्मशक्ति अचल, अनादि, एक है क्योंकि अपने गुण और पर्यायों से समन्वित अन्वय रूप से स्वयम् परिपूर्ण रहती है । इसके साथ ही आप की एक चेतना स्वयं अनुसरण करती हुयी आपकी शक्ति पर को अन्वयरूप से पान करती सी स्फुरायमान होती है । अशेष पदार्थ चैतन्य ज्योति में झलकते रहते हैं || १७ ॥
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