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चतुर्विंशति स्तोत्र द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से विचार करने पर द्रव्य नित्यरूप से एक प्रतीत होता है । वही वस्तु तत्त्व पर्यायार्थिक दृष्टि से विचित कियं जाने पर अनेकपने से स्फुरायमान होता है । यह एकानेक रूप वस्तुतः द्रव्य
और पर्यायों के समाहारमय आत्मा के कारण ही प्रतिभासित होते हैं । आत्मा और द्रव्य, पर्यायों में प्रदेश भेद नहीं है, मात्र संज्ञा, लक्षणादि से भेद हैं । अतः उभय धर्मों का एक ही तत्त्व में निर्विवाद और निर्विरोध सिद्ध हो जाता है || ४ ||
किसी भी पदार्थ या तत्त्व में अनेक बिना एकत्व और एकत्य रहित अनेकत्त्व नहीं देखा गया । सभी वस्तुएँ एकानेक के समुदायरूप प्रतीत होती हैं । अपने ही अवयवों में एक और अनेक रूपता लिए ही बस्तु शोभित होती है ।। ५ ॥
यद्यपि एक और अनेकपना परस्पर विरुद्ध दृष्टिगत होता है । परन्तु आपके सिद्धान्त पध में दानी ही आवराध हुए प्रतिभासित ही होते हैं । अव्यतिरेक दृष्टि की अपेक्षा अनेकों में एकत्व और व्यतिरेकापेक्षा एकत्व में अनेकत्व प्रामाणिक सिद्ध होता है । न्यायोचित रूप से दोनों व्यवस्थित हो निवास करते हैं । कारण, इनमें प्रदेश भिन्नता नहीं है | अतः एकत्व और अनेकत्व एक ही काल में एक वस्तु में अबिरुद्ध सिद्ध होते हैं ।। ६ ।।
जब नित्यत्वपने से द्रव्य की सिद्धि की जाती है, उस क्षण अनंक रूप पर्यायें क्षणिक होने से सुसुप्त रहती हैं । अर्थात् गौण हो जाती हैं । जिस क्षण विशेष-पर्यायों से विशिष्ट द्रव्य मीमांसा को प्राप्त होता है तो नित्य एकत्व अस्त हो जाता है अनेकत्व जाग्रत रहता है । इस प्रकार द्रव्य-पर्यायात्मक दृष्टियों से उभच धर्म सिद्ध हो जाते हैं ।। ७ ।।
नित्यत्व या एकत्व अनि है और क्षणिकत्व या पर्यायरूप अनेकत्व अंग या अवयव हैं | अबयचों के अभाव में अवयवी एकत्व रह