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चतुर्विशति स्तोत्र
उपर्युक्त सिद्धान्त से कर्ता भिन्न है, तथा निश्चय ही कर्म भी भिन्न ही हैं । यही कर्ता-कर्म की स्थिति है । आप कर्ता हैं, तदेव उसी प्रकार कर्म भी आपके हैं यह कथन सामान्यापेक्षा है । हे देव ! आप विज्ञानघन स्वरूपता को करते हैं, क्योंकि जो विज्ञानघनस्वरूपता है, वहीं साक्षात निश्चय से आप हैं । अतः जिनेश्वर ! आप विज्ञानधन रूप शरीर धारी ही हैं । कारण स्व स्वभाव स्थिति में इसी के कर्ता प्रतिभासित होत हैं ।। १९ ।।
हे देव ! आए साक्षात् अपने ही निजगुणों के आधार हैं. उसी प्रकार स्वयं गुणस्वभावसे आधेय भी हैं । असामान्यापेक्षा अविशेषावस्था में आप अपने ही स्वभावतत्त्व में सर्वव्यापी हो । कारण शुद्ध ज्ञानचेतना में इसी प्रकार आधार आधेय भाव स्पष्ट सिद्ध हो जाज्वल्यमान प्रकाशित होता है । उसी कारण से यह विज्ञानघन स्वभाव प्रखर रूप से ज्योतिर्मय हुआ प्रकाशमान हुआ स्पष्ट अपना बैभव प्रकाशित करता है || २० ॥
आत्मा ज्ञाता होने से सम्पूर्ण विश्व को मापने वाला है और स्वयं "मेय" मापने योग्य भी है । इसी प्रकार समस्त विश्व इसमें समाहित है | इस प्रकार की प्रत्याशक्ति होने पर भी कारण-कार्य में एकत्त्व स्थापित करने में समर्थ नहीं है । क्योंकि यह निकटवर्तीसानिध्यता कथंचित् रूप से अर्थ की वाचक है, अतः एकता के साथ अनेकत्व को भी लिए हैं । इसीसे मापक और माप्य में सर्वथा एकपना नहीं-भेद रूपता रहती है क्योंकि दोनों में जातीय भेद हैं अर्थात् दोनों विजातीय हैं ।। २५ ।।