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चतुर्विंशतिस्तोत्र
सद्भाव और असद्भाव दोनों ही आप में एक दूसरे से अविरोधी सिद्ध होते हैं एक ही समय में आपमें दोनों धर्म एक साथ रहते हैं कारण भिन्न-भिन्न होने से । क्योंकि सत्ता अपने स्वभावांशों की अपेक्षा हैं, और असद्भाव परकीय अंशों की अपेक्षा है । अतः सापेक्ष न्याय या सिद्धान्त से आत्मा उभयात्मक प्रत्यक्ष सिद्ध है । इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य भी उभय धर्मात्मक ही हैं || १२ ||
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इससे स्पष्ट है कि सभी बाच्यभूत पदार्थ क्रमशः द्वय धर्मात्मक है या रहेंगे ! क्योंकि दोनों धर्मों को युगपत् नहीं कह सकते । वचनों में दो विरोधी धर्मों का एक साथ कथन करने की योग्यता का अभाव है । हाँ! ये पर्यायें दोनों सहवर्ती रहती हैं ऐसा हे भगवन् ! आपका सिद्धान्त हैं । अतः आपने बतलाया कि इस संसार में सभी वस्तुएँ वाच्य और अवाच्य हैं अपेक्षाकृत । अर्थात् कथंचित वाच्य हैं और कथंचित् अवाच्य भी || १३ ||
एकान्तपने से वाच्य से सर्वथा भिन्न अवाच्यपना नहीं है और इसी प्र अवाच्य के अभाव में वाच्य पना भी सिद्ध नहीं देखा जाता । क्यों कि वाचक रूप शब्दों की स्व क्रम से और परापेक्षा पर क्रम से द्वयात्म शक्तियों का निरूपण करने की ही योग्यता है । अतः द्वयात्मक ही वस्तु ग्रथित है, अन्य प्रकार नहीं | १४ ||
वाच्यता और अवाच्यता इन दोनों धर्मों से सम्पन्न वस्तु विरुद्धता को भी प्राप्त होती हैं । यह आपके सिद्धान्त में निरूपित है । क्योंकि दोनों का मार्ग स्वभाव या अपेक्षा भिन्न-भिन्न है । भेद विवक्षा में वस्तु व्यक्त होती है अतः वाच्यरूप है-कथन योग्य है । वही वस्तु सामान्यापेक्षा - पिण्डरूप में अवाच्य है | इसी न्याय से ही वस्तु वाच्य और अवाच्य से उभयात्मक ही सिद्ध होती है ।। १५ ।।
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