________________
चतुर्विंशति स्तोत्र सकेगा ? नहीं रह सकता । इसी प्रकार नित्यत्व व एकत्व के अभाव में अवयव रूप अनेकपना किस प्रकार स्थित होगा ? नहीं हो सकता । दोनों में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । क्षणिक-विनाशीक पर्यायरूप अवयवों के अभाव में नित्यत्व एकत्वरूप अवयवी कितना टिकेगा और अवयवरूप क्षणभंगुरपर्यायों के अभाव में अङ्गी-अवयवी भी स्थित नहीं रहेगा । अतः एक दूसरे में अपने अस्तित्व की वृत्ति से ही दोनों का अवस्थान संभव है । अतः गुणपर्यायमयी द्रव्य सिद्ध है । अन्वय-व्यतिरेक स्वरूप ही वस्तु तत्त्व नियत है । अतः यही वास्तविक स्थिति है ।। ८ ।।
हे जिन ! एक समय में एक ही वस्तु में नित्य और अनित्य पना परस्पर विरुद्ध होते हुए भी आपके सिद्धान्त में ये दोनों अपने-अपने अस्तित्व को लिए समन्वयरूप से प्रकाशित-प्रकट रहते हैं । द्रव्यत्व पने से द्रा निलम है और स्थाई सभा नित्य पड़ न्यायोचित व्यवस्था अविरुद्ध सिद्ध हो जाती है || ९ ।।
स्व द्रव्य-क्षेत्र काल व भावापेक्षा वस्तु सद्रूप प्रतिभासित होती है | एवं अन्य द्रव्य-क्षेत्र, काल भावापेक्षा से असद् पना भी उसी में निहित दृष्टिगत होता है । वास्तविक रूप से सत्ता-असत्ता पूर्णतः एक साथ रहती ही हैं । क्योंकि भावाभाव एक साथ एक पदार्थ में ही प्रतिष्ठित रहते हैं | यही वस्तु के अस्तित्व को सिद्ध करने वाली व्यवस्था है ॥ १० ॥
कर्म कालिमा आत्म द्रव्य से भिन्न है । इस प्रकार समझना चाहिये । यदि आत्मद्रव्य कीदृ-कालिमामय हो तो इसके अभाव बिना भी यह स्व-स्वभाव रूप हो जायेगी । अतः शुद्धात्मा-अशुद्धात्मा ये दो आत्म द्रव्य के अंश है - भेद हैं । इनकी सिद्धि स्व-पर की अपेक्षा से होती हैं | अतः दोनों धर्म समकाल में पूर्ण माने जायेंगे तो वस्तु को शून्यता प्राप्त होगी, आश्रयी का अभाव होने से । शुद्धाशुद्ध दशा एक काल में नहीं है 1॥ ११ ॥