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चतुर्विशति स्तोत्र
'अस्ति' इस प्रकार की शब्द ध्वनि उच्चारत होने पर नास्ति पने को प्रशमित करती हुयी अर्थात् गौण करती हुयी ही विधि पने का विधान स्थित करती है । अपने वाच्यभूत पदार्थ का स्पष्टीकरण करती हुयी पर रूप-निषेधपने से पराङ् मुख होती हुयी ही निश्चय से साक्षात् निषेध को कथित करती हैं ।। १४ ॥
"नास्ति" यह शब्द ध्वनि भी अनङ्कुश प्रचार शून्य होती हुयी प्रवर्तती है । क्योंकि एकाएक विश्व को सकलशून्य नहीं बनाती । अतः निश्चय से स्वपद स्थापन के साथ पर पद की अपेक्षा स्वयं अभिलसित करती है । वस्तु स्वभाव ही अन्योन्यापेक्षा चाहता है । अतः उभय धर्म सापेक्ष प्रवर्तते हैं कोई भी निरङकुश नहीं होते ।। १५ ।।
यदि विधि-निषेध को सापेक्ष न स्वीकार कर एकान्तेन विधि ही कही जायेगी तो विधि वाचक शब्द निश्चय से विधि को ही सिद्ध नहीं कर सकेगा | कारण विध्यर्थ स्वयं इसका विधान करने को पर रूप निषेध धर्म को चाहता है । क्योंकि इसमें नियत सन्निविष्ट हुआ प्रवर्तता प्रतीत होता है | जो जिस स्वभावरूप है वह उसी स्वभाव से अवस्थित रहता है ।। १६ ।।
अनेकान्त सिद्धान्त में स्याद्वादशैली कथन प्रणाली सर्वत्र स्यात् शब्द का प्रयोग करती हुयी उभय शक्तियों को सुव्यवस्थित करती है । शब्दों में सत् असत् रूप दोनों ही शक्तियाँ अबाधरूप से सन्निविष्ट हैं । जब स्वभाव से दोनों प्रतिपादक शक्तियाँ विद्यमान हैं तो फिर किस प्रकार सत् या असत् का एकान्त से अभाव व सद्भाव किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता || १७ ||
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