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चतुर्विंशतिस्तोत्र
विश्वव्यापी प्रयोग होगा । इस प्रकार होने पर उसका प्रतिपक्षी निषेध भी स्पष्टरूप से सर्वत्र सर्वदाविश्व व्यापी होगा । इस प्रकार होने पर पदार्थ परस्पर निषेधरूप होने पर स्वाभाविक रूप से व्यावृत्ति धर्म प्रवृत्त होगा ही, तभी संसार स्थिति टिक सकेगी । अन्यथा सर्वाभाव होगा, पर ऐसा होता नहीं । अतः स्यात् निषेध और स्यात् विधि ही स्वीकारने पर तत्त्व व्यवस्था सिद्ध होगी ॥ 99 ॥
एकान्तपने से असद् स्वरूप वाणी कहेगी तो सम्पूर्ण संसारमें असपना ही व्याप्त हो जायेगा । परन्तु ऐसा होता नहीं क्योंकि विधि रूप सत्ता भी सर्वत्र परिलक्षित होती है । विधि के अभाव में असत्ता अनन्तता को प्राप्त होगी । जो प्रकृ को स्वयं अस है क्योंकि ऐसा स्वीकृत करने पर सृष्टि के अभाव का प्रबल अवांछनीय प्रसंग उत्पन्न हो जायेगा | पर यह प्रत्यक्ष विरोध है । अतः अपेक्षा कृत सद्भाव व अभाव धर्मों को स्वीकार करना ही होगा । यही वस्तु व्यवस्था का अकाट्य सूत्र है ।। १२ ।।
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विश्व व्यापि भेदाभेद एकान्त से व्याप्त प्रतीत नहीं होता । अपितु परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा से ही दोनों अपने-अपने स्वभाव में अवस्थिति पा सकते हैं। क्योंकि अन्योन्य एकान्त से विरोधी होकर असद् भी अनन्तता को प्राप्त होगा जो विधि के सर्वथा प्रतिकूल पर नाश को ही प्राप्त होगा । विधि के अभाव में निषेध अपना व्यापार कहाँ किसमें करेगा ? क्रियाहीन वह भी नष्ट ही होगा । तब सकल शून्यता का प्रसंग आयेगा | अतः एकान्तपने विधि - निषेध व सत्ता, असत्ता टिक नहीं सकती । सापेक्ष ही स्वीकृत करना होगा ॥ १३ ॥
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