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चतुर्विशति स्तोत्र
स्फुरायमान रहता है, ऐसा आत्मानुभव में प्राप्त होता है । आत्मतत्त्व चित् स्वभाव है | चेतना ज्ञान-दर्शन स्वरूपमयी है | अतः यही ज्ञाता-दृष्टा है । इसी कथन से यह स्पष्ट और प्रत्यक्ष सिद्ध होता है कि अपने स्वभाव के अतिरिक्त पर भावापेक्षा नास्ति रूप अर्थात आत्मा ज्ञानी है, यह किस प्रकार प्रमाणित होगा? अस्तु वस्तु स्वभाव उभयात्मक ही हैं । यह स्वयं सिद्ध है ।। ८ ।।
अस्तित्व के विकल्प में नास्तित्व पना भी सर्वत्र स्फुरायमान स्पष्ट प्रत्यक्ष होता है । यह सिद्धान्त स्वयं अनुभूति आता ही है । क्योंकि पर स्वरूप से यह चिच्चमत्कार ज्योति में प्रत्यक्ष अवभासित होता है। तभी तो स्व स्वरूपापेक्षा वस्तु तत्त्व का अस्तित्व सिद्ध होगा अर्थात् आत्म चैतन्य स्वभाव है । ज्ञान-दर्शन चेतना है । परन्तु आत्मा में अनन्त सुख, वीर्य, अस्तित्व, प्रमेयत्व आदि अनन्त शक्तियाँ हैं, यदि इन्हें चैतन्य स्वभाव से भिन्न स्वीकार नहीं किया जायेगा, तो सर्व मिल एक चेतनामात्र शक्ति रहेगी । अन्य का अभाव हो जाने से आत्मतत्त्व ही सिद्ध नहीं होगा | अस्तु, पररूपत्व द्वारा नास्तित्वपना सिद्ध होता है । क्योंकि नास्तित्व का विरोधी अस्तित्व भी सिद्ध है ।। ९ ।।
इस प्रकार है जिन! आपने उपदिष्ट किया कि वस्तु तत्व (त्व) को यदि अस्तित्व, नास्तित्व उभय धर्मात्मक नहीं माना तो जगत का ही विनाश हो जायेगा । अर्थात् एकान्तरूप से विधि अथवा निषेध रूप तत्त्व स्वीकार किया जायेगा तो सर्वसंकर दोष उत्पन्न होगा अथवा सम्पूर्ण सृष्टि का ही विनाश हो जायेगा | इसलिए कथंचित् भेदाभेद रूप या सदसद् धर्मों से युक्त ही वस्तु तत्त्व स्वीकृत होता है |॥ १० ॥
यदि एकान्तपने से सत् यही वचन प्रवृत्ति हुयी तो विधि का
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