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चतुर्विशति स्तोत्र
___शब्दों की उभय रूपता सिद्ध करने वाली शक्ति उनमें स्वयं विद्यमान है । जो स्वभाव सिद्ध शक्तियाँ हैं उन्हें पर रूप करने में कोई समर्थ नहीं हो सकता । इन उभयात्मक शक्तियों की अभिव्यक्ति कभी भी एकान्तपने से होना संभव नहीं है | अपितु 'स्याद्वाद' से संभव है । इसके अभाव में प्रतिपाद्य तत्त्व को प्रतिपादन करने की सामर्थ्य शब्दों में नहीं है ।। १८ ॥
एका ही अन्नान द्वारा दो शानियों की रिद्धि में पान शट न रहे तो इतरेतर प्रयोग विफल हो जायेगा । अगर सफलता हो भी गई तो उससे प्रयोजन ही क्या सिद्ध होगा? अर्थात् कुछ भी सिद्ध न होकर मात्र क्लेशपना ही सिद्ध होगा ! क्योंकि तत्त्व तो स्वतः उभयसिद्ध हैं । इसलिए एक धर्मसिद्ध होने पर दूसरे का अभाव होगा | एक के अभाव द्वितीय भी न ठहरेगा । अतः दोनों का लोप होना वस्तु का ही लोप होना है । जो सर्वथा अनिष्टकारी ही होगा || १९ ।।
अतः जिस समय विधि रूप वर्णन की विवक्षा है तो विधि रूपता मुख्य है और निषेधपना गौण हो जाता है । स्याद्वाद के आश्रय से यही सुनिश्चित व सुव्यवस्थित है । निषेध विवक्षा में विधि गौण होकर रहती है । इस प्रकार स्यात्कार से दोनों ही शक्तियाँ निर्बाध रूप रहकर वस्तु स्वरूप सिद्धि में कार्यकारी हैं || २० ।।
जो धर्म विवक्षित होता है, अर्थात् वक्ता जिसका कथन करना चाहता है वह मुख्य होता है । जो अविवक्षित है वह गौण होकर रहता है । इस प्रकार एक ही पदार्थ में गौण और मुख्यता की अपेक्षा मैत्री भाव से दोनों धर्मों का एक साथ अस्तित्व सिद्ध हो जाता है । अतः अभाव किसी का भी नहीं होता !| २१ ।।
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