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चतुर्विंशति स्तोत्र
पाठ-१४ है जिन! आपका स्वरूप अनन्त तेज का पुञ्ज भी अरूपी है । क्यों कि वह दर्शन-ज्ञानमयी बैतन्य स्वरूप हो प्रतिभांसत होता हैं । क्रम और अक्रम रूप स्वभावशक्ति से परिपूर्ण भरा है । द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक दृष्टि से उभय धर्म सन्निहित हैं । अर्थात् अखण्ड होते हुए भी अनेकरूप भी है । इसी स्वभाव से प्रतिभासमान होता है |॥ १।।
आप तो भगवन् एक अखण्ड चैतन्यरूप अनेकशक्तियों से सम्पन्न हो । हे जिन! यह एक विचित्र स्वरूप है कि नाना प्रकार से ऊहा-पोह कर विचारने पर भी दृष्टिगोचर नहीं होते अपितु अतीन्द्रिय ही रहते हो | कारण आपकी चेतनाशक्ति अमूर्त है । अमूर्त का परिज्ञान अमूर्तज्ञान ही कर सकता है । अत: इन्द्रियगोचर नहीं है || २ ||
अवस्थित और अनवस्थित अर्थात् नित्य और अनित्य धर्म परस्पर विरोधी हैं, परन्तु आप अविरोधरूप से इन उभय धर्मों से परिपूर्ण हो | कारण अपने ही निजस्वभाव में सतत् लीन रहते हैं । तो भी निजगुण अगुरु लघु शक्ति द्वारा षड्गुणी हानि वृद्धि स्वभाव लिए अनवस्थित भी प्रतीत होते हैं । आपके सिद्धान्त में यही वस्तु स्वभाव निरुपित है ।। ३ ।।
चैतन्य चमत्कार शक्ति के उन्नत चमत्कारों द्वारा स्व पर के भेद से विस्तार को लिए आपकी चित् शक्ति अनुभव करती हैं । अर्थात् आप भेद विज्ञान भरी अविच्छिन्न धारा चिद स्वभाव का अनुभवन करते हैं । इस प्रकार आप नित्यानित्य शक्तियों के आकार हैं || ४ ।।
एकत्व में अनेकत्व घटित नहीं होता, जो अनेक स्वरूप है वह एकपने को प्राप्त नहीं कर सकता । दोनों धर्म एक साथ मिलकर एक अन्य ही अवस्थारूप होंगे । इस स्थिति में आपका सिद्धान्त बतलाता है कि यह विरोध भी अविरोध रूप से अपेक्षाकृत सिद्ध हो जाता है ।