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चतुर्यिशति स्तोत्र विश्व इनका विषय बन रहा है । तथा आपके अनुभव में भी ये स्वयं अपने स्वभाव से प्रविष्ट से हो प्रतिबिम्बित हो रहे हैं ।। १९ ।।
अन्य मतावलम्बी सिद्धान्त में विषयी (विषयों का ग्राहक) अपनी इच्छा से विषयों को ग्रहण करता हुआ उन्हीं के समान क्षीण होता जाता है अर्थात् विषय (पदार्थ) और उनका ग्राहक (आत्मा) उनके साथ-साथ ही विनष्ट हो जाते हैं । अर्थात् क्षणिकवादियों के सिद्धान्त में ग्राहक और ग्राह्य दोनों ही क्षणिक हैं और साथ-साथ विलीन हो जाते हैं । परन्तु आपके सिद्धान्त में सर्वथा एकान्त का निषेध है । कथंचित अपेक्षाकल पर्यावदृष्टि से नश्वर होकर भी ज्ञान-दर्शन व पदार्थ क्षणिक और स्थायी उभय धर्मों को धारण करने वाले हैं । निश्चय से सत् का नाश नहीं होता और नहीं उत्पाद ही होता है । जो है सो ही रहता है । पर्यायापेक्षा परिणमन होने पर भी अपनी किल्ली ध्रुव स्वरूपत्व का कोई भी त्याग नहीं करते ॥ २० ॥
सुनिश्चल स्वभाव भरित दृशि व ज्ञाप्ति क्रियायें संसारोत्पत्ति के बीज को नष्ट कर डालती हैं । आपने भी अपनी उभयशक्तियों को परिपूर्ण रूप से प्रकट कर संसार बीज को सदा के लिए विदग्ध कर दिया । शक्तियाँ निष्क्रिय नहीं होती । अपितु अकथंचिद् रूप से सक्रिय भी होती हैं । अन्यथा अर्थात् सर्वथा क्रियाओं का उपरमण होने पर कुमार्ग हो जायेगा, सन्मार्ग का अभाव होने पर संसार सन्तति उच्छेद का नियम ही नहीं बन सकेगा । अतः क्रियाएँ सक्रिय होती हुयी अपने-अपने स्वभाव में क्रीड़ा करती हैं ॥ २१ ॥
आत्मा अपनी क्रियाशील परिणति द्वारा पौद्गलिक कर्म परमाणुओं को आकृष्ट करती है । तथा उन्हें आत्मसात कर मलिन होती है | किन्तु परिपक्व दशा में वह पररूप जड़ता को आकृष्ट नहीं करती । हे प्रभो आप संयमपथारूढ़ हो अपनी स्वाभाविक परिणति को परिपक्व कर चुके अर्थात अपरिणत दशा प्राप्त हो चुके हैं अतः भवबीज का उच्छेद कर अपने नियत शुद्ध चैतन्य स्वभाव में ही नियत हो गये हैं ॥ २२ ।।
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