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चतुर्विशति स्तोत्र
पाठ १६ त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण विश्व को एक ही समय में प्रकाशित करने वाला, स्व पर प्रकाशक स्वभाव धारक, स्वयं स्व स्वभाव में तृप्त, आप पूर्णता को प्राप्त, ऐसे अनन्तज्ञान मार्तण्ड स्वरूप स्वभाव का अनुभव करने वाले हैं । ज्ञानघन स्वरूप ही आप प्रकट प्रकाशित हैं ।। १ ।।
चारों ओर से अनन्त पदार्थ सपर्याय आप में निरंतर प्रतिविम्वित हो रहे हैं । उनसे खचित होते हुए भी आप तनिक भी क्षुभित नहीं होते । अपने स्वभावरस से चलायमान नहीं होते । निसवरण क्षायिक दर्शनशक्ति व असीम ज्ञान सुधारस उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होता हुआ ही ज्ञानामृत रस को प्रदान करते हो । अर्थात् विश्वस्थ समस्त भव्यात्मा आपके ज्ञान सुधारस से संतृप्त होते हैं, परन्तु उसमें सरसता हीन नहीं होती
___अनादिकालीन संसार परम्परा की प्रवृत्ति करने वाली कषायों का रंग मलिनता किसी प्रकार आपके साम्यरस भरे शान्तिरूपी कलशों के क्रमिक विस्तार द्वारा यह आत्मा स्वच्छ की गई है । अर्थात् कषायरस रंजित आत्म तत्व को आपने निर्मल बनाया । इसके लिए शमरस का प्रयोग किया । फलतः क्रम-क्रम से वह कषायमलिनता पृथक् की गई || ३ ||
उत्तम चारित्र से समन्वित ज्ञान रूपी शस्त्र विद्युतवत् चमत्कृत हो गया । इस प्रकार रत्नत्रय मयी आत्मबल से आपने पूर्ण विकसित और अपने निज स्वभाव खचित आत्मशक्ति को विकासोन्मुख बनाया । फलतः स्वस्वभाब निष्ठ हो गये । अतः हे जिनेश्वर आप ही रत्नत्रय तेज में निरन्तर चिच्चमत्कार प्राप्त हैं || ४ ||
असीम, अगाध संसारभूमि खान को आपने हजारों उपायों के बैग से प्राप्त महान शक्ति से पूर दिया, भर दिया । यह संसार सागर अनेक